Thursday, 20 December 2012

सौदों के बाद शोध में सड़ांध



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किसी सेनाध्यक्ष द्वारा पहली बार रक्षा सौदों में दलालों की सक्रियता के आरोपों के बाद सरकार से लेकर सेना तक में हलचल है. लेकिन कम लोगों को पता है कि यह लॉबी सिर्फ रक्षा सौदों को ही नहीं बल्कि रक्षा शोध और विकास को प्रभावित करके भारत को स्वदेशी उपकरण विकसित करने से भी रोक रही है

सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया कि उन्हें विदेशी कंपनी के साथ होने वाले एक रक्षा सौदे में रिश्वत की पेशकश की गई थी. इसके बाद एक बार फिर से हर तरफ यह चर्चा हो रही है कि किस तरह से रक्षा सौदों में दलाली बदस्तूर जारी है और ज्यादातर रक्षा सौदों को विदेशी कंपनियां अपने ढंग से प्रभावित करने का खेल अब भी खेल रही हैं. इसके बाद सेनाध्यक्ष का प्रधानमंत्री को लिखा वह पत्र लीक हो गया जिसमें बताया गया है कि हथियारों से लेकर तैयारी के मामले तक में सेना की स्थिति ठीक नहीं है. नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट भी सेना की तैयारियों की चिंताजनक तस्वीर सामने रखती है.
रक्षा सौदों में दलाली और तैयारी के मोर्चे पर सेना की बदहाली के बीच एक मामला ऐसा है जो इशारा करता है कि विदेशी कंपनियां अपनी पहुंच और पहचान का इस्तेमाल न सिर्फ रक्षा सौदों के लिए कर रही हैं बल्कि इस क्षेत्र के शोध और विकास की प्रक्रिया को बाधित करने के खेल में भी शामिल हैं ताकि उनके द्वारा बनाए जा रहे रक्षा उपकरणों के लिए भारत एक बड़ा बाजार बना रहे.
यह मामला है 1972 में शुरू हुई उस परियोजना का जिसके तहत मिसाइल में इस्तेमाल होने वाला एक बेहद अहम उपकरण विकसित किया जाना था. इसमें शामिल एक बेहद वरिष्ठ वैज्ञानिक का कहना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल पर शुरू हुई यह परियोजना जब अपने लक्ष्य को हासिल करने के करीब पहुंची तो इसे कई तरह के दबावों में जानबूझकर पटरी से उतार दिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि आज भी भारत इस तरह के उपकरण बड़ी मात्रा में दूसरे देशों से खरीद रहा है. इंदिरा गांधी के बाद के चार प्रधानमंत्रियों के संज्ञान में इस मामले को लाए जाने और एक प्रधानमंत्री द्वारा जांच का आश्वासन दिए जाने के बावजूद अब तक इस मामले की उचित जांच नहीं हो सकी है.

साठ के दशक में चीन से चोट खाने और फिर 1971 में पाकिस्तान के साथ हुई लड़ाई के बाद यह महसूस किया गया कि रक्षा तैयारियों के मामले में अभी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है. फिर से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उस सपने का जिक्र हो रहा था जिसमें उन्होंने कहा था कि वे रक्षा जरूरतों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं. तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रक्षा से संबंधित अहम स्वदेशी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन भारतीय वैज्ञानिकों की सेवा लेने पर जोर दिया जो दूसरे देशों में काम कर रहे थे.इन्हीं कोशिशों के तहत अमेरिका की प्रमुख वैज्ञानिक शोध संस्था नासा में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिक रमेश चंद्र त्यागी को भारत आने का न्योता दिया गया. त्यागी ने देश के लिए काम करने की बात करते हुए नासा से भारत आने के लिए मंजूरी ले ली. इसके बाद भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की एक लैब सॉलिड स्टेट फिजिक्स लैबोरेट्री में उन्हें प्रमुख वैज्ञानिक अधिकारी (प्रिंसिपल साइंटिफिक ऑफिसर) के तौर पर विशेष नियुक्ति दी गई. उन्हें जो नियुक्ति दी गई उसे तकनीकी तौर पर ‘सुपर न्यूमरेरी अपवाइंटमेंट’ कहा जाता है. यह नियुक्ति किसी खास पद या जरूरत को ध्यान में रखकर किसी खास व्यक्ति के लिए होती है और अगर वह व्यक्ति इस पद पर न रहे तो यह पद खत्म हो जाता है.

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