Tuesday 6 November 2012

कितने काम के कानून?


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देश में आज भी ऐसे कई कानून हैं जो न्याय से ज्यादा दमन का जरिया बने हुए हैं.

उत्तराखंड में नैनीताल जिले के तराई क्षेत्र में हंसपुर खत्ता नाम का एक गांव है. राज्य के बाकी ग्रामीण क्षेत्रों की तरह इस गांव में भी रोजगार के लिए पलायन आम बात है. जंगलों के बीच बसे इस गांव के कई युवा नौकरी के लिए बाहर चले जाते हैं. प्रकाश राम भी उनमें से एक थे जो आगरा की एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे. अगस्त, 2004 में वे छुट्टियां मनाने अपने गांव आए थे. उन्हें घर आए कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन पुलिस उनके पिता हयात राम को घर से उठा कर ले गई. हयात राम क्षेत्रीय जनांदोलनों में काफी सक्रिय रहते थे. उनकी गिरफ्तारी के दिन प्रकाश घर पर नहीं थे. अगले दिन जब वे लौटे तो पुलिस ने उन्हें भी थाने चलने को कहा. पूछने पर पुलिस ने बस इतना बताया कि कुछ पूछताछ के बाद उन्हें और उनके पिता को साथ में ही छोड़ दिया जाएगा. प्रकाश के मुताबिक दो दिन तक पुलिस ने उन्हें बिना लिखित रिपोर्ट दर्ज किए ही अलग-अलग थानों में बंद रखा. दो दिन बाद जब पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की तो उसमें बताया गया कि गांव के पास जंगल में एक माओवादी प्रशिक्षण शिविर चलाए जाने की सूचना मिली थी और वहीं से प्रकाश और हयात राम को गिरफ्तार किया गया है. पुलिस ने यह भी दर्शाया कि इनके पास से कुछ प्रतिबंधित साहित्य बरामद किया गया है.
इसके बाद प्रकाश और उनके पिता को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. पूरे दो साल बाद प्रकाश की जमानत हो सकी. वे बताते हैं, 'माओवाद क्या होता है उस वक्त मैं जानता भी नहीं था. पुलिस का असली चेहरा हमने उसी दौरान देखा. ऐसा लगता था जैसे हम अपने देश में नहीं बल्कि किसी दुश्मन देश में आ गए हैं. हमें देशद्रोही घोषित कर दिया गया था. हमारी जमानत को जो भी तैयार होता, पुलिस उसे डरा-धमका कर जमानत नहीं देने देती.'

सरकार इस कानून को इसलिए समाप्त नहीं करना चाहती ताकि उसके हाथ में हमेशा एक ऐसा हथियार रहे जिससे वह अपनी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबा सके
प्रकाश और उसके पिता के साथ ही कुछ अन्य लोगों को भी देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था जो लगभग सात साल तक जेल में रहने के बाद इसी साल 14 जून को बरी हुए हैं. कोर्ट में सुनवाई के दौरान ऐसी कई बातें सामने आईं जो साफ बताती थीं कि यह पूरा मामला पुलिस द्वारा तैयार किए गए झूठ के सिवा कुछ भी नहीं था. जिस प्रतिबंधित साहित्य को सील करने की तिथि पुलिस द्वारा 20 सितंबर, 2004 दर्शाई गई थी, वह दरअसल 23 नवंबर, 2004 के अखबारों में लपेटकर सील किया गया था. अदालत के सामने पुलिस ने यह भी कबूला कि उसे पता ही नहीं कि बरामद साहित्य प्रतिबंधित है भी या नहीं. 14 जून, 2012 को कानूनी तौर पर तो यह मामला समाप्त हो गया, लेकिन प्रकाश और बाकी लोगों की जिंदगी के जो साल जेल में बीत गए उनका हिसाब देने वाला कोई नहीं. उन पर देशद्रोही होने का जो कलंक लगा वह अलग. 
इतिहास बताता है कि राज्य सदियों से शोषण का प्रतीक रहा है और कानून उस शोषणकारी व्यवस्था को मजबूत करने का जरिया. राजा की ‘प्रजा’ से ब्रितानिया हुकूमत की ‘गुलाम’ होने तक भारत की जनता के लिए राज्य का स्वरूप हमेशा शोषणकारी ही बना रहा. आजादी मिलने पर जब जनता की संप्रभुता वाले वेलफेयर स्टेट यानी कल्याणकारी राज्य को स्थापित करने की बात कही गई तब लोगों को जरूर यह लगा कि अब राज्य का स्वरूप बदलेगा. मगर 65 साल बाद भी क्या ऐसा हो पाया है? पिछले कुछ समय से कुडनकुलम में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों के खिलाफ 200 से ज्यादा मुकदमे दर्ज करके करीब 1,50,000 लोगों को आरोपित बनाया गया है. इनमें से अधिकतर पर देशद्रोह और देश के खिलाफ साजिश एवं युद्ध की तैयारी करने जैसे आरोप हैं. अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक झारखंड में भी लगभग 6,000 आदिवासियों को ऐसे ही आरोपों के चलते जेल में कैद किया गया है. जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक सरकारी तंत्र की बर्बरता का शिकार होने वाले लोगों के कितने ही उदाहरण हैं. कई ऐसे जिन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी और कई ऐसे भी जिन्हें घर से उठा लिया गया जिनका आज तक कुछ पता नहीं है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई ऐसे राज्य हैं जहां अलग-अलग कानूनों के अंतर्गत हजारों लोगों को देशद्रोह और देश के खिलाफ साजिश के आरोप में जेल में डाल दिया गया है. और यह सब जिन कानूनों की आड़ में हुआ है वे अपने दुरुपयोग के चलते हमेशा से बदनाम रहे हैं और इसीलिए उन्हें खत्म करने की मांग भी लंबे समय से उठती रही है.

धारा 124 ए (भारतीय दंड संहिता)
पिछले दिनों टीम अन्ना से जुड़े कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया गया था. मामला हाई प्रोफाइल होने के कारण पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया. असीम द्वारा वकील न करने पर और जमानत लेने से इनकार करने के बावजूद उन्हें छोड़ दिया गया. लेकिन इस देश में असीम त्रिवेदी की तरह ‘चर्चित देशद्रोह’ करने का सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता. प्रकाश राम और उनके साथियों की तरह हजारों लोग हैं जो देशद्रोह के आरोप में कई साल जेल में बिता चुके हैं और आज भी बिता रहे हैं. अलग-अलग स्रोतों से मिली जानकारी बताती है कि अकेले झारखंड में ही पिछले 10 साल में पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा 550 से ज्यादा लोगों को नक्सली होने के नाम पर मौत के घाट उतारा जा चुका है. कुछ समय पहले एक प्रतिष्ठित अखबार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक इस समय झारखंड में करीब 6,000 लोग जेल में हैं जिनमें से अधिकतर पर माओवादी साहित्य पाए जाने और  माओवादियों की मदद करने का आरोप है.
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए में देशद्रोह की परिभाषा के तहत आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है. धारा 124 ए में लिखा है : ‘राजद्रोह’ : जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्य-रूपण द्वारा या अन्यथा (भारत) में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, अप्रीति प्रदीप्त करेगा या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह (आजीवन कारावास) से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा.

इतिहास बताता है कि यह कानून अंग्रेजी राज के दौरान 1870 में लागू किया गया था. तब इसका मकसद था क्रांतिकारियों को कुचलना. आजादी से पहले महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मौलाना आजाद और एमएन रॉय जैसे कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर इस धारा के अंतर्गत मुकदमे चलाए जा चुके हैं. देश को आजादी मिलने के बाद से ही इस कानून का विरोध होने लगा था. संवैधानिक सभा में बहस के दौरान भी कुछ लोग इस कानून के पक्ष में नहीं थे. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इस पर नाखुशी जाहिर की थी. उन्होंने इसे लोकतंत्र विरोधी करार देते हुए कहा था कि यह प्रावधान बहुत ही अप्रिय और आपत्तिजनक है और व्यावहारिक व ऐतिहासिक दोनों ही कारणों से गणतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए.
उनकी राय थी कि इससे जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही बेहतर होगा. लेकिन यह कानून आज भी न सिर्फ मौजूद है बल्कि समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी होता रहा है. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘केदारनाथ बनाम सरकार’ मामले में सुनवाई के दौरान धारा 124 ए का दायरा सीमित कर दिया था. अदालत का कहना था, ‘सिर्फ वही कार्य देशद्रोह की परिभाषा में दंडनीय होगा जो साफ तौर से हिंसा भड़काने या अशांति फैलाने के आशय से किया गया हो.’ फिर भी इस धारा के दुरुपयोग पर अंकुश नहीं लग सका है. हाल में एक आयोजन के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर का कहना था कि इस कानून के चलते ‘यह सरकार निकम्मी है’ जैसे बयान देना भी दंडनीय हो जाते हैं जबकि संविधान ऐसे किसी भी कानून की इजाजत नहीं देता जो अभिव्यक्ति की आजादी का हनन करता हो. सच्चर की मानें तो यह कानून सरकार को निरंकुश बनाता है और सरकार इसे इसलिए खत्म नहीं करना चाहती ताकि उसके हाथ में हमेशा एक ऐसा हथियार रहे जिससे वह अपनी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबा सके.
ऐसा ही होता दिखता है. धारा 124 ए का इस्तेमाल आम तौर पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही किया जाता रहा है. अरुंधती राय, विनायक सेन, पत्रकार सीमा आजाद, उनके पति विश्वमोहन और सोनी सोरी जैसे कई नाम इसके उदाहरण हैं. पॉस्को से लेकर कुडनकुलम संयंत्र मामले तक हजारों आदिवासियों और ग्रामीणों को इस कानून के तहत देशद्रोही घोषित करके जेल भेजा जा चुका है. आजादी के बाद से अब तक हजारों लोगों पर देशद्रोह के मुकदमे चलाए गए. इनमें से ज्यादातर वही हैं जो जनविरोधी नीतियों पर सरकार का विरोध करते आए हैं.

धारा 124 ए का इस्तेमाल आम तौर पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही किया जाता रहा है. अरुंधती राय, विनायक सेन, पत्रकार सीमा आजाद, उनके पति विश्वमोहन और सोनी सोरी जैसे कई नाम इसके उदाहरण है
जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित संस्था ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) आपातकाल के दौर से ही ऐसे कानूनों का विरोध करती आई है. संस्था के राष्ट्रीय सचिव महिपाल सिंह कहते हैं, ‘विपक्ष द्वारा सरकार पर कई तरह के आरोप रोज लगाए जाते हैं. सरकार की लगभग हर नीति का विपक्ष खुलेआम विरोध और निंदा करता है तो उन पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं होता. लेकिन यही काम जब कोई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और खास तौर पर किसी ग्राम समुदाय के लोग और आदिवासी अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए करते हैं तो उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. ऐसे कानूनों की लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए.’ 

हालांकि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता मीनाक्षी लेखी की राय थोड़ी जुदा है. वे कहती हैं, ‘विपक्ष जब भी किसी सरकारी नीति की निंदा करता है तो वह एक लोकतांत्रिक तरीके से करता है, उसे देशद्रोह नहीं कहा जा सकता. मैं खुद भी कई ऐसी सरकारी नीतियों का विरोध करती आई हूं जो जनहित में नहीं थीं. हम कभी यह नहीं कहते कि इस पूरी व्यवस्था को ही उखाड़ फेंका जाए. जबकि कई अलगाववादी संगठन इसी मंशा से विरोध करते हैं कि इस व्यवस्था को बदल कर किसी तानाशाही व्यवस्था को स्थापित कर दिया जाए और ऐसे लोगों को रोकने के लिए तो यह धारा बहुत ही जरूरी है.’ हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू का कहना था, ‘इस धारा का गलत इस्तेमाल करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ धारा 342 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें जेल होनी चाहिए.’ इस धारा के दुरुपयोग पर उनका कहना था, ‘यदि इसका दुरुपयोग बंद नहीं हुआ और मेरी जानकारी में कोई भी ऐसा मामला आया जहां किसी निर्दोष व्यक्ति पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा हो तो मैं स्वयं ऐसे गलत आरोप लगाने वालों के खिलाफ मुकदमा करूंगा फिर चाहे वह कोई मंत्री या मुख्यमंत्री ही क्यों न हो.’ इसी साक्षात्कार के दौरान जस्टिस काटजू ने यह भी स्वीकार किया कि यह धारा खत्म कर देना ही बेहतर है. हालांकि मीनाक्षी लेखी का मानना है कि किसी भी कानून का दुरुपयोग निंदनीय है, लेकिन 124 ए को समाप्त कर देना कोई समाधान नहीं. वे कहती हैं, ‘दुरुपयोग तो भारतीय दंड संहिता की और भी कई धाराओं का होता रहा है. यहां तक कि धारा 376 और 302 तक का दुरुपयोग हुआ है, इसका मतलब यह तो नहीं कि इन्हें भी समाप्त कर दिया जाए.’
विभिन्न मानवाधिकार संगठन और कई सामाजिक कार्यकर्ता इस धारा को असंवैधानिक बताते हुए इसे समाप्त करने की मांग करते आ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि भारत में इस कानून की स्थापना करने वाले ब्रिटेन ने भी अपने यहां यह कानून खत्म कर दिया है. जस्टिस सच्चर के शब्दों में, ‘ऐसे कानून बताते हैं कि कैसे राज्य अपने ही लोगों के खिलाफ एक युद्ध छेड़े हुए है. इस कानून का समाप्त होना नागरिक स्वतंत्रताओं की सबसे बड़ी जीत होगी.’

गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए)
आतंकवाद और अलगाववाद से लड़ने के नाम पर आज तक कई विशेष कानून बनाए गए हैं मगर ऐसे कानून हमेशा ही अपने दुरुपयोग के लिए ज्यादा बदनाम हुए. 1985 में पंजाब में खालिस्तान आंदोलन से निपटने के लिए टाडा (टेररिस्ट ऐंड डिसरप्टिव एक्टिविटिस (प्रिवेंशन) एक्ट) बनाया गया था जिसे दो साल बाद पूरे देश में लागू कर दिया गया. टाडा के अंतर्गत कुल 76,000  से भी ज्यादा लोगों को जेल में बंद किया गया. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 19,000 लोग तो गुजरात में बंद हुए जहां उस वक्त कोई कथित आतंकवाद नहीं था. टाडा के व्यापक दुरुपयोग के चलते इसका चौतरफा विरोध हुआ और अंततः 1995 में इसे समाप्त कर दिया गया. फिर 2002 में एनडीए सरकार द्वारा पोटा (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट) लागू कर दिया गया. यह भी शुरू से ही विवादास्पद रहा. इसके दुरुपयोग के भी कई मामले सामने आए. इनमें से एक मामले में तो दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रवक्ता को पोटा अदालत द्वारा फांसी की सजा सुना दी गई थी. बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें बरी कर दिया गया.
2004 में आई यूपीए सरकार ने पोटा को तो निरस्त कर दिया मगर टाडा और पोटा के विवादास्पद प्रावधान यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट) में शामिल कर लिए गए. 2008 के मुंबई हमलों के बाद इस कानून को फिर से संशोधित किया गया. यूएपीए का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि 2008 के संशोधन ने इस कानून को और ज्यादा बर्बर बना दिया है. कश्मीर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष एफ ए कुरैशी बताते हैं, ‘यूएपीए नई बोतल में पुरानी शराब जैसा है. यह कानून सरकार को मनमानी करने का अधिकार देता है. जो कोई भी अपने अधिकारों के हनन होने पर आवाज उठाता है, उसे इस कानून से दबा दिया जाता है और उसकी लंबे समय तक जमानत भी नहीं हो पाती.’
ऐसे कानूनों से आतंकवाद पर नियंत्रण पाने का तो कोई भी पुख्ता उदाहरण नहीं मिलता लेकिन इनके दुरुपयोग के हजारों उदाहरण हैं. यह कानून अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं और अपने जल-जंगलों को बचाने की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों के दमन के लिए इस्तेमाल होता रहा है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह कानून पुलिस और सरकारी अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा शक्तियां प्रदान करके उन्हें मनमानी और दमन करने की छूट देता है.

सीमा आजाद उत्तर प्रदेश में ‘दस्तक’ नाम की एक पत्रिका निकालती हैं. प्रदेश की राजनीतिक खामियों के साथ ही उन्होंने ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के संभावित खतरों पर एक विस्तृत रिपोर्ट अपनी पत्रिका में छापी. छह फरवरी, 2010 को उन्हें दिल्ली से लौटते वक्त इलाहाबाद स्टेशन पर उनके पति विश्वविजय के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. माओवादी साहित्य बरामद होने का आरोप लगाते हुए उन्हें यूएपीए की विभिन्न धाराओं में आरोपित बना दिया गया. लगभग ढाई साल जेल में रहने के बाद इसी साल अगस्त में उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा जमानत पर रिहा किया गया है. सीमा आजाद की ही तरह माओवादी साहित्य बरामद होने के नाम पर विभिन्न राज्यों में हजारों लोगों को कैद किया गया है. इस संदर्भ में 15 अप्रैल, 2011 को विनायक सेन को जमानत देते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि ‘सिर्फ माओवादी साहित्य बरामद होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता.’ साथ ही तीन फरवरी, 2011 को एक अपील की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘महज किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता जब तक कि किसी हिंसक घटना में उसकी कोई भूमिका न हो’. फिर भी देश में न जाने कितने लोग माओवादी होने के आरोप में जेल में हैं.
सीमा आजाद उत्तर प्रदेश में ‘दस्तक’ नाम की एक पत्रिका निकालती हैं. प्रदेश की राजनीतिक खामियों के साथ ही उन्होंने ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के संभावित खतरों पर एक विस्तृत रिपोर्ट अपनी पत्रिका में छापी.
हाल ही में दिल्ली स्थित जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन द्वारा दिल्ली में एक रिपोर्ट जारी की गई. ‘आरोपित, अभिशप्त और बरी’ नामक इस रिपोर्ट में भी कई ऐसे मामले दर्शाए गए हैं जिनमें यूएपीए के तहत लोगों को आरोपित बनाया गया और सालों जेल में बंद रखने के बाद भी जब उनके खिलाफ कोई मामला नहीं बन पाया तो उन्हें बरी कर दिया गया. रिपोर्ट में आमिर नामक एक लड़के का भी जिक्र है जिसे 18 साल की उम्र में जेल में डाल दिया गया था. आमिर का फैसला होने में 14 साल लगे जिस दौरान वह जेल में रहा और उसकी जिंदगी के ये 14 महत्वपूर्ण साल यूं ही निकल गए. एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स नामक संस्था ने आमिर को कोई कारोबार शुरू करने के लिए पांच लाख रुपये की वित्तीय सहायता की है. संस्था की दिल्ली इकाई के सचिव सय्यद अख्लाक अहमद बताते हैं, ‘आमिर और उनके जैसे कई अन्य लोगों की जिंदगी के ये साल तो लौटाए नहीं जा सकते मगर सरकार इनके पुनर्वास के लिए भी कोई कदम नहीं उठाती और न ही उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही की जाती है जो ऐसे झूठे मामलों में लोगों की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं.’ जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन की अध्यक्ष मनीषा सेठी ऐसे मामलों में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाते हुए कहती हैं, ‘जब भी कोई व्यक्ति देशद्रोह के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है तो मीडिया स्वयं ही इन्हें आतंकवादी घोषित करने में रत्ती भर नहीं कतराता. मीडिया में बेझिझक बयान दिए जाते हैं कि कोई माओवादी या लश्कर का आतंकी पकड़ा गया है. जब वही व्यक्ति कोर्ट द्वारा निर्दोष बताया जाता है तो उस पर कहीं कोई खबर नहीं होती.’

यूएपीए अपने कई प्रावधानों के चलते विवादित रहा है. इनमें से एक यह भी है कि इस कानून के तहत आरोपी को 180 दिन तक बिना आरोपपत्र दाखिल किए बंद रखा जा सकता है, जबकि दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार किसी भी मामले में 90 दिन के भीतर आरोपपत्र दाखिल करना अनिवार्य होता है. इस संदर्भ मंे पीयूसीएल की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष और अधिवक्ता एनडी पंचोली बताते हैं, ‘आज तक ऐसा एक भी मामला मेरे संज्ञान में नहीं जब यूएपीए के अंतर्गत आरोपी बनाए गए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ 90 दिन के भीतर आरोपपत्र दाखिल किया गया हो. पुलिस ऐसे प्रावधानों का गलत इस्तेमाल करती है और किसी को भी इतने लंबे समय तक जेल में डाल देती है. आतंकी गतिविधियों की पड़ताल तो और भी ज्यादा जल्दी की जानी चाहिए फिर आरोपपत्र दाखिल करने के लिए इतना ज्यादा समय देना कहां तक उचित है?’ पंचोली आगे बताते हैं, ‘भारतीय दंड संहिता में हर तरह के अपराध की सजा का प्रावधान है और आतंकवाद से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता ही काफी है. इसके अलावा जितने भी कानून आतंकवाद से निपटने के नाम पर बनाए जाते हैं वह सिर्फ राज्यों द्वारा शोषण करने का ही काम करते हैं जो बंद होना चाहिए.’
नक्सल प्रभावित इलाकों में तो सोनी सोरी जैसे हजारों आदिवासी यूएपीए जैसे कानून का दंश झेल ही रहे हैं साथ ही उन इलाकों के लोग भी इसके दुरुपयोग का शिकार हो रहे हैं जहां नक्सलवाद या माओवाद का नाम तक नहीं है.

 सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा)
काले कानूनों की श्रृंखला में सबसे ज्यादा कुख्यात कानून है ‘आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर्स) एक्ट’ यानी अफस्पा. 1958 में लागू हुआ यह कानून सेना बलों द्वारा नागरिकों की हत्या, बलात्कार व दमन करने का एक साधन बनने के आरोपों को लेकर लंबे समय से विवादों में रहा है. अफस्पा के अंतर्गत सैन्य बलों को जिस प्रकार के अधिकार और छूट हासिल है उसकी तुलना दुनिया के किसी भी अन्य कानून से नहीं की जा सकती है. अफस्पा भारतीय संविधान में वर्णित मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के लिए तो चर्चा में रहा है साथ ही यह 1978 में मेनका गांधी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई ‘कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था’ की परिभाषा का भी उल्लंघन करता है. उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर जम्मू-कश्मीर तक जहां भी यह कानून प्रभावी है वहां इसके दुरुपयोग के हजारों उदाहरण मिलते हैं.
पांच मार्च, 1995 को नागालैंड की राजधानी कोहिमा में राष्ट्रीय राइफल्स के जवानों ने गाड़ी के टायर फटने की आवाज को बम धमाका समझ कर गोलीबारी शुरू कर दी. इस गोलीबारी में सात लोगों की जान चली गई और 22 लोग गंभीर रूप से घायल हुए. मरने वालों में चार और आठ साल की दो बच्चियां भी शामिल थीं. नवंबर, 2000 में मणिपुर की राजधानी इंफाल के पास एक बस स्टैंड पर खड़े 10 लोगों को असम राइफल्स के जवानों द्वारा मार दिया गया. अफस्पा की आड़ में हुए इस नरसंहार के बाद ही इरोम शर्मिला ने इस कानून को हटाने की मांग के साथ भूख हड़ताल शुरू की. इस हड़ताल को 12 साल होने वाले हैं. आज तक की सबसे लंबी भूख हड़ताल करने वाली इरोम का नाम कई रिकॉर्डों में दर्ज हो चुका है, लेकिन अफस्पा को हटाने की उनकी मांग आज तक अधूरी है.
सरकार आतंकवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानूनों को बनाए रखने का तर्क देती है. लेकिन क्या इन कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करने के लिए भी किसी इतने ही प्रभावी कानून की आवश्यकता नहीं है?
जम्मू-कश्मीर में भी हजारों परिवार इस कानून के दुरुपयोग के शिकार हुए हैं. श्रीनगर में रहने वाली परमीना अहंगर पिछले 22 साल से अपने बेटे की राह देख रही हैं. 18 अगस्त, 1990 की रात तीन बजे उनके बेटे को राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के सिपाही घर से उठा कर ले गए थे. उनका बेटा जावेद अहंगर उस वक्त 16 साल का था और दसवीं कक्षा में पढ़ता था. उस रात के बाद से जावेद की कोई खबर नहीं मिली. प्रशासन से लेकर कोर्ट तक कई-कई बार गुहार लगा चुकी परमीना अब गुमशुदा युवाओं के अभिभावकों की एक संस्था चलाती हैं. गांव-गांव जाकर उन्होंने लापता लोगों के परिवार वालों को संगठित करके ‘एसोसिएशन फॉर पेरेंट्स ऑफ डिसअपीयर्ड पर्सन्स’ का गठन किया. तहलका से बात करते हुए परमीना बताती हैं, ‘मैंने हर एक थाने, हर छावनी, हर कैंप, हर अस्पताल में अपने बेटे को ढूंढ़ा मगर उसकी कोई खबर नहीं मिली. आज 22 साल हो चुके हैं. आज मैं सिर्फ अपने बेटे के लिए नहीं लड़ रही बल्कि उन हजारों बच्चों के लिए लड़ रही हूं जो जावेद की ही तरह लापता कर दिए गए हैं. हमें मारने के लिए तो कई कानून हैं लेकिन जो इन कानूनों के नाम पर खुलेआम कत्ल कर रहे हैं उन्हें सजा देने के लिए कोई कानून नहीं है.’ बात जायज है. सरकार आतंकवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानूनों को निरस्त करने से तो इनकार कर सकती है मगर क्या ऐसे कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करने के लिए भी किसी इतने ही प्रभावी कानून की आवश्यकता नहीं है?
2004 में अफस्पा पर बदनामी का एक बड़ा कलंक तब लगा जब 30 वर्षीया थान्गजम मनोरमा के साथ असम राइफल्स के जवानों द्वारा सामूहिक बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी गई. इसके विरोध में 40 महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने बैनर दिखाकर विरोध प्रदर्शन किया, जिन पर ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ लिखा था. इसने देश को झकझोर कर रख दिया. मजबूरन केंद्र सरकार को अफस्पा की जांच के लिए एक आयोग का गठन करना पड़ा. जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में बने इस पांच सदस्यीय आयोग ने 2005 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इसमें कहा गया कि अफस्पा को तुरंत निरस्त कर दिया जाना चाहिए. जीवन रेड्डी आयोग के अलावा 2007 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक सुधार समीति और हामिद अंसारी की ‘वर्किंग ग्रुप ऑन कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स इन जम्मू एंड कश्मीर’ ने भी अफस्पा को हटाए जाने की संस्तुति की है. इसी साल मार्च में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि क्रिस्टोफ हेंस ने भी कई इलाकों में घूम कर और कई लोगों से मिलकर एक रिपोर्ट केंद्र को सौंपी है. इसमें भी अफस्पा को मानवाधिकारों का हनन करने वाला कानून मानते हुए इसे हटाए जाने की संस्तुति की गई है.
सवाल यह भी है कि ऐसे कानून कितने सफल रहे हैं. अफस्पा को ही लें. जब इस कानून को बनाया गया था तब पूर्वोत्तर में सिर्फ ‘नागा नेशनल काउंसिल’ ही एक ऐसा संगठन था जिससे सशस्त्र विद्रोह के संभावित खतरे थे. आज अफस्पा के इतने साल बाद आलम यह है कि ऐसे पचासों संगठन उत्तर-पूर्व में मौजूद हैं. इससे यह तो साफ है कि जिन उद्देश्यों के लिए ऐसे कानूनों को बनाया जाता है उनकी पूर्ति नहीं हो पाती जबकि इन कानूनों का दुरुपयोग बहुत बड़े स्तर पर होता है. आजादी के 65 साल बाद भी यदि हजारों बेगुनाह लोग अपने देश के ही कानून की बलि चढ़ रहे हों तो वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य की बातें हवा-हवाई ही लगती हैं.

आज नकद कल फसाद !!


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आप श्री राम सेना से कभी भी और कहीं भी दंगे करवा सकते हैं बस आपके पास सही कीमत अदा करने की कुव्वत होनी चाहिए. 

 इस वाक्य को यूट्यूब पर टाइप करने पर 133 वीडियो परिणाम मिलते हैं. पहले वीडियो को अब तक तकरीबन तीन लाख लोग देख चुके हैं. यही वाक्य गूगल सर्च पर लिखा जाए तो 69 हजार वेबसाइटों का संदर्भ मिलता है. संबंधित घटना 24 जनवरी, 2009 की है. उस दिन मंगलौर के एक पब में तकरीबन 35-40 लोगों ने जबर्दस्ती घुसकर महिलाओं पर हमला बोल दिया था. मारपीट की इस घटना को एक दक्षिणपंथी संगठन  श्री राम सेना, जिसे इससे पहले तक शायद ही कोई जानता हो, के सदस्यों ने अंजाम दिया था. संगठन के कैडरों का कहना था कि सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं का शराब पीना 'असभ्य आचरण' की श्रेणी में आता है और यह 'हिंदू संस्कृति और परंपराओं' का अपमान है. इस घटना के दो दिन बाद ही भारतीय गणतंत्र की साठवीं सालगिरह थी. 26 जनवरी को पूरे दिन राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर पब से निकलकर दौड़ती, गिरती-पड़ती और पिटती महिलाओं का वीडियो फुटेज दिखाया जाता रहा (यह वीडियो फुटेज टीवी चैनलों को सिर्फ इसलिए मिल पाया था कि पब पर हमला करने के आधा घंटा पहले सेना ने खुद ही पत्रकारों को इसकी सूचना दी थी). टीवी चैनलों पर दिखाए जाने के बाद यह घटना हर जगह चर्चा का विषय बन गई. फ्रांस, रूस और जर्मनी तक के पत्रकारों ने इस घटना की रिपोर्टिंग की. इस तरह दो दिनों में ही श्री राम सेना घर-घर में जाना जाने वाला नाम बन गया.
" मैं इसमें सीधे शामिल नहीं हो सकता. मेरी एक छवि है, समाज में कुछ प्रतिष्ठा है. लोग मुझे सिद्घांतों वाले व्यक्‍ति के रूप में देखते हैं, एक आदर्शवादी और ‌हिंदुत्ववादी के रूप में देखते हैं "
प्रमोद मुतालिक, राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राम सेना
एक संगठन के रूप में सेना ने हमेशा खुद को एक उग्र हिंदूवादी संगठन साबित करने की कोशिश की है. सेना के नेता यह दावा करते रहे हैं कि वे हिंदू धर्म और संस्कृति के झंडाबरदार हैं और उनके कार्यकर्ता इस काम में लगे हुए कर्मठ सिपाही. उनके खुद के शब्दों में, अपने हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने के लिए उन्हें लोगों से मारपीट करने, संपत्तियों और कलाकृतियों को नष्ट करने और धर्म से बाहर जाकर जोड़ी बनाने वालों को अलग करने में कोई झिझक नहीं. कुल मिलाकर इस संगठन का पहचानपत्र हिंसा है, नैतिकता और संस्कृति की आड़ में की जाने वाली हिंसा.
हालांकि इस संगठन और उसकी कारगुजारियों के बारे में तहलका की छह सप्ताह तक चली तहकीकात बताती है कि सेना के संस्कृति और नैतिकता की रक्षा के दावे किस तरह एक पाखंड भर हैं. 'धर्म रक्षा' के लिए तात्कालिक हिंसक प्रतिक्रिया करना श्री राम सेना के कार्यकर्ताओं का सिर्फ एक घृणित चेहरा है. असल में तो यह संगठन सनकी और आवारागर्द लोगों का एक ऐसा झुंड है जिसे पैसे देकर भी अपना काम कराया जा सकता है. 'दंगे के लिए ठेका' लेने वाले इस संगठन की असलियत उजागर करने वाली तहलका की तहकीकात बताती है कि इससे तोड़फोड़ करवाने के लिए बस आपको कुछ कीमत चुकाने के लिए तैयार होना है. श्री राम सेना के इस चेहरे को सामने लाने के लिए एक तहलका संवाददाता ने खुद को कलाकार बताकर श्री राम सेना के अध्यक्ष प्रमोद मुथालिक से मुलाकात की. उसके सामने एक प्रस्ताव और तर्क रखा. तर्क यह था कि नकारात्मक प्रचार भी आखिर प्रचार ही होता है, प्रस्ताव यह था कि श्री राम सेना कलाकार के चित्रों की प्रदर्शनी पर हमला करे जिससे देश-दुनिया में सभी लोगों  का ध्यान उसके चित्रों की ओर चला जाए और वह बाद में ऊंचे दामों पर इन्हें बेच सके (मुथालिक को यह भी बताया गया कि ये चित्र हिंदू-मुसलिम सद्भाव से संबंधित हैं और इनमें खासकर हिंदू-मुसलिम शादियों का चित्रण है). बदले में मुथालिक और सेना को वह प्रचार तो मिलता ही जो मंगलौर पब पर हमले के बाद मिला था, साथ ही इस उपद्रव को आयोजित करने का मेहनताना भी मिलता. इस प्रस्ताव पर मुथालिक की प्रतिक्रिया में गुस्सा या डर कतई नहीं था. उसने तुरंत तहलका संवाददाता को सेना के कई सदस्यों के फोन नंबर दे दिए और फिर एक के बाद एक ऐसे कई आपराधिक चेहरे सामने आते गए जो पेशेवराना अंदाज़ में अराजकता फैलाने के उस्ताद थे. इस पूरी कहानी को जानने से पहले शायद श्री राम सेना और इसके संस्थापक के अतीत के बारे में जानना बेहतर रहेगा.
" श्री राम सेना के पास एक बहुत बढ़िया टीम है, जो भी आप करवाना चाहते हैं कर देंगे. हमारे पास हर चीज की सेटिंग है. सिर्फ एक ही प्रॉब्लम है- मनी प्रॉब्लम " 
कुमार, मंगलौर में श्री राम सेना का एक सदस्य
श्री राम सेना की शुरुआत 2007 में प्रमोद मुथालिक ने की थी जो अब भी इसका राष्ट्रीय अध्यक्ष है. उत्तर कर्नाटक के बगलकोट में जन्मे मुथालिक ने अपने शुरुआती दिन हिंदू दक्षिणपंथी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ गुजारे. वह 13 साल की उम्र से ही शाखा जाने लगा था. 1996 में आरएसएस में उसके सीनियरों ने मुथालिक को अपने सहयोगी संगठन बजरंग दल में भेज दिया. दल का दक्षिण भारत का संयोजक बनने में मुथालिक को एक साल से भी कम समय लगा. मुथालिक को जानने वाले उसे महत्वाकांक्षी, समर्पित और तीखा वक्ता कहते हैं. आरएसएस और इसके दूसरे संगठनों के साथ अपने 23 साल के जुड़ाव में मुथालिक का कई बार कानून से आमना-सामना हुआ और अपने ऊपर लगे भड़काऊ भाषण देने के आरोपों के चलते उसे कई बार जेल भी जाना पड़ा.
हिंदुत्व के प्रति उसके तथाकथित समर्पण का  जब उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला तो 2004 में उसने आरएसएस से अपना नाता तोड़ लिया. उसने दावा किया कि आरएसएस और इससे जुड़े अन्य संगठन पर्याप्त सख्ती न अपनाकर हिंदू हितों से गद्दारी कर रहे हैं. इसके बाद यह अपेक्षित ही था कि 2007 में स्थापना के बाद से ही अत्यंत कट्टर हिंदुत्व की राजनीति श्री राम सेना की पहचान बन गई. मुथालिक कहते हैं कि हिंसा ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है. राजनीति के केंद्रीय रंगमंच पर आने की कोशिश में 2008 में मुथालिक ने राष्ट्रीय हिंदुत्व सेना का गठन किया, जो श्री राम सेना का राजनीतिक धड़ा है. लेकिन यह बुरी तरह से नाकाम रही. चुनाव लड़ने वाला इसका कोई भी उम्मीदवार अपनी मौजूदगी तक दर्ज नहीं करा सका. तहलका से बात करते हुए मुथालिक ने कैमरे के सामने यह स्वीकार किया कि उसके उम्मीदवार राज्य चुनाव इसलिए हार गए क्योंकि 'हमें कामयाब होने के लिए पैसा, धर्म और ठगों की जरूरत है. हमें यह पता नहीं था. आज की राजनीतिक स्थिति बदतर हो गई है.'
चुनावी राजनीति में फिर से लौटने की कोशिश  के फेर में मुथालिक और सेना ने और अधिक कट्टर रुख अपनाते हुए 'हिंदू' पहचान को मजबूती देने की योजनाओं के एक सिलसिले की शुरुआत की. हालांकि इस संगठन का मजबूत आधार तटीय और उत्तर कर्नाटक के कुछ इलाकों में है, लेकिन इसकी गतिविधियां इन्हीं इलाकों तक सीमित नहीं हैं. 24 अगस्त, 2008 को दिल्ली में श्री राम सेना के कुछ सदस्य सहमत नामक एनजीओ द्वारा आयोजित एक कला प्रदर्शनी में घुस गए और एमएफ हुसैन की अनेक तसवीरों को नष्ट कर दिया. एक माह बाद सितंबर में मंगलौर में एक सार्वजनिक सभा में बोलते हुए मुथालिक ने बंेगलुरु बम धमाकों का जिक्र किया, जो एक हफ्ता पहले हुए थे और यह घोषणा की कि सेना के 700 सदस्य आत्मघाती हमले करने के लिए प्रशिक्षण ले रहे थे. उसने घोषणा की, 'अब हमारे पास और धैर्य नहीं है. हिंदुत्व को बचाने के लिए जैसे को तैसा का ही एकमात्र मंत्र हमारे पास बचा है. अगर हिंदुओं के धार्मिक महत्व के स्थलों को निशाना बनाया गया तो विरोधियों को कुचल दिया जाएगा. अगर हिंदू लड़कियों का दूसरे धर्म के लड़कों द्वारा इस्तेमाल किया जाएगा तो अन्य धर्मों की दोगुनी लड़कियों को निशाना बनाया जाएगा.'
" मैंने पहले 1996 में आरएसएस में काम किया. फिर बजरंग दल में. मैं उस मुख्य टीम में शामिल था जिसने मंगलौर पब में हमला किया था. मगर पुलिस ने जो मामला दर्ज किया है उसमें मेरा नाम नहीं है. मैं कभी गिरफ्तार नहीं हुआ "
सुधीर पुजारी , मंगलौर में श्री राम सेना का एक सदस्य
कुछ महीनों बाद कर्नाटक पुलिस ने राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान हुबली में हुए धमाकों के संबंध में जनवरी, 2009 में नौ लोगों को गिरफ्तार किया. उनका मुखिया नागराज जंबागी सेना सदस्य और मुथालिक का नजदीकी सहयोगी था- इसे तब खुद मुथालिक ने स्वीकार किया था. जुलाई, 2009 में जंबागी की बगलकोट जेल में ही हत्या हो गई. मंगलौर पब हमले के दौरान अपने कैडरों को उकसाने के लिए गिरफ्तार किए जाने के कुछ मिनट पहले मुथालिक ने पत्रकारों से कहा था कि वे इन हमलों को इतना बड़ा मुद्दा क्यों बना रहे हैं. उसने कहा था- 'हम अपनी हिंदू संस्कृति को बचाने के लिए यह कदम उठा रहे हैं और उन लड़कियों को सजा दे रहे हैं जो पबों में जाकर इस संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश कर रही थीं. जो कोई भी मर्यादा की सीमा से बाहर जाएगा हम उसे बरदाश्त नहीं करेंगे.'
मुथालिक  के सुझाए 'मर्यादा' में रहने के ये तौर-तरीके आज भी तटीय कर्नाटक में अनेक प्रकार से लागू किए जा रहे हैं. मंगलौर में सेना के कैडर 15 जुलाई, 2009 को एक हिंदू शादी के समारोह में घुस गए और वहां मौजूद एक मुसलिम मेहमान के साथ मारपीट की. पूरे इलाके में मुसलिम लड़के महज हिंदू लड़कियों से बात करने के लिए ही पीट दिए जाते हैं. लव जिहाद (हिंदू लड़कियों को कथित तौर पर मुसलिम लड़कों द्वारा शादी का प्रस्ताव देकर अपने धर्म में शामिल करने की साजिश) के नाम पर स्थानीय लोगों की भावनाओं को भड़काने की भी जमकर कोशिश की जा रही है.
इस तरह अपनी पड़ताल के लिए तहलका के पत्रकार ने खुद को एक कलाकार के रूप में पेश किया और घोषणा की कि उसकी अगली प्रदर्शनी लव जिहाद की सकारात्मक छवि पर होगी. लेकिन इसके बावजूद मुथालिक या सेना के किसी सदस्य पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता दिखा कि वे जिस चीज़ का सैद्धांतिक रूप से विरोध करने का दावा करते हैं उससे संबंधित चित्रों की बिक्री उनके विरोध से बढ़ जाने वाली है.
पेश है तहलका की मुथालिक से मुलाकात का सिलसिलेवार ब्योरा.

तहलका की मुथालिक से पहली भेंट हुबली स्थित सेना के दफ्तर में हुई. कला प्रदर्शनी पर पूर्वनियोजित तरीके से हमले का प्रस्ताव रखने से पहले यह कहते हुए कि 'हिंदुत्व के लिए हम भी कुछ करें', नकद 10 हजार रुपए दान के रूप में दिए गए. मुथालिक ने झट से पैसे लिए और उन्हें अपनी जेब में रख लिया. उसने मना करने का दिखावा करने तक की जहमत नहीं उठाई.
बातचीत के क्रम में एक ऐसा प्रस्ताव सुझाया गया जो दोनों पक्षों के लिए लाभकारी था.  मुथालिक के चेहरे पर हमने किसी तरह की हैरानी या अचंभे का भाव नहीं देखा - तब भी नहीं जब तहलका संवाददाता ने यह सुझाया कि प्रदर्शनी बंेगलुरु के एक मुसलिम बहुल इलाके में होनी चाहिए ताकि हमले का अधिकतम असर हो. इस सुझाव पर मुथालिक की एकमात्र प्रतिक्रिय़ा थी - ‘हां. हम ऐसा कर सकते हैं. मंगलौर में भी कर सकते हैं.’ इस तरह एक दूसरे शहर मंगलौर, जहां हमला किया जा सकता था, पर भी बात पक्की हो गई. अगले पांच मिनटों के भीतर मुथालिक ने इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए हमें दो सेना नेताओं- बेंगलुरु शहर अध्यक्ष वसंतकुमार भवानी और सेना के उपाध्यक्ष प्रसाद अवतार से मिलने का सुझाव दिया जो मंगलौर में रहते हैं.
  
" मैं आपको बताऊंगा कितना पैसा लगेगा. यह मंगलौर पब अटैक की तरह होगा, बल्कि उससे भी बेहतर होगा.आपको पूरा नेशनल मीडिया कवरेज मिलेगा. मैं आपके लिए सब सेटिंग कर दूंगा "
प्रसाद अत्तावर , राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, श्री राम सेना
तहलकाः
 मैं चाहता हूं सर मुझे पॉपुलेरिटी मिले और पॉपुलेरिटी मिलेगी तो मेरा बिजनेस भी बढ़ जाएगा... अगर आप कहें तो मैं... आप मुझे एक दायरा बता दें... कि इतना खर्चा आ गया... इतने लड़के होंगे... इतना एडवो... मतलब वकीलों का... हम लोग तो कंप्लेंट ही नहीं करेंगे... क्योंकि वो तो हमारी अंडरस्टेंडिंग है... तो सर लेकिन ये है कि आप मुझे जो बताएंगे मैं एडवांस आपके यहां छोड़ करके जाऊंगा उसके बाद आपको कहूंगा कि ये सर पूरा आ गया है अब सर काम कर दो...

मुथालिकः मंगलौर में कर सकते हैं... बंगलौर.

तहलकाः बंगलौर में शिवाजी नगर वाले एरिया में मुझे पॉपुलेरिटी ज्यादा मिल जाएगी्... क्योंकि वो पूरा एरिया उन्हीं का है... मुसलिम का ही. आपने अगर प्रेस में एक वक्तव्य भी दे दिया और आपके दस कार्यकर्ता भी पहुंच गए... हम तो उसे बंद कर देंगे न... हमें क्या है... लेकिन उसे ये ही ना पॉपुलेरिटी तो मिल ही जाएगी...
मुथालिकः हां कर सकते हैं...
तहलकाः तो सर मुझे एक सीधा बता दीजिए... या मेरे को दो-चार दिन बाद आने को बता दीजिए... आप पूरा बताइए कि पुष्प ये मेरा खर्चा आ रहा है... तुम इतना कर दो... तो सर मैं पूरा करके उसको प्लान कर देता हूं.
मुथालिकः मैं क्या बता रहा हूं... वहां के हमारे प्रेसिडेंट हैं.
तहलकाः बंगलौर के?
मुथालिकः बंगलौर के... वो भी बहुत स्ट्रांग हैं... उनसे बात करके... आप मैं और वो तीनों बैठकर प्लान करेंगे क्या-क्या करना है... फिर करेंगे... डेफिनेट करेंगे
घंटे भर चली बातचीत गालियों, मुसलमानों के प्रति नफरत भरे संवादों और 'उनके द्वारा देश को बांटने की योजना' के इर्द-गिर्द घूमती है. मुथालिक तहलका से कहता है कि लव जेहाद के जरिए मुसलमान अपनी तादाद बढ़ाकर हिंदुओं को पीछे छोड़ना चाहते हैं. वह आगे बताता है कि मुसलमान ब्राह्मण और जैन लड़कियों को निशाना बना रहे हैं ताकि उनके बच्चों में इन जातियों जैसी तेज अक्ल आ जाए जिससे उनके मकसद को मदद मिलेगी. उसके मुताबिक मुसलमानों की यह साजिश पूरे देश में चल रही है और इसकी रफ्तार भी बढ़ रही है. जब हम उससे पूछते हैं कि हिंदू लड़के भी यह काम क्यों नहीं करते तो मुथालिक का जवाब आता है कि श्री राम सेना अब हिंदू युवाओं को भी इस बात के लिए प्रेरित कर रही है.
बातचीत के दौरान हम बार-बार उसके सामने अपना प्रस्ताव दोहराते हैं. मुथालिक को यह प्रस्ताव ठुकराने के कई मौके भी देते हैं. लेकिन  ऐसा करने की बजाय वह अपने दूसरे सहयोगियों को इस बारे में बताने की पेशकश करता है जो इस योजना को लागू करने में निर्णायक भूमिका निभाएंगे. अगली मुलाकात की तारीख तय होती है. निजी फोन नंबरों का आदान-प्रदान होता है और मुथालिक हमें एक हफ्ते बाद आने को कहता है.
सेना का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते मुथालिक  का रुख इसे लेकर साफ है कि अगर इस योजना में उसकी भूमिका सामने आती है तो उसके लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी, लिहाजा वह कहता है कि योजना के महत्वपूर्ण पहलुओं पर वह अपने सहयोगियों प्रसाद अत्तावर, वसंतकुमार भवानी और जीतेश से बातचीत करेगा और फिर उन्हें तहलका से संपर्क करने को कहेगा. पूरी बातचीत के दौरान कभी भी इस बात को लेकर संशय नहीं पैदा होता कि मुथालिक ही मुखिया है और अंतिम निर्णय का अधिकार उसी के हाथ में है.
मुथालिक के हस्तक्षेप के बावजूद श्री राम सेना के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रसाद अत्तावर से संपर्क करना आसान नहीं रहा. अत्तावर हर व्यक्ति को संदेह की निगाह से देखता है और फोन करने पर मोबाइल नहीं उठाता. इसलिए तहलका को उससे मिलने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी. मुथालिक के विश्वस्त सहयोगी माने जाने वाले अत्तावर को मंगलौर के पब में हुई घटना का सूत्रधार माना जाता है. 2007 में श्री राम सेना  की शुरुआत से ही अत्तावर इससे जुड़ा हुआ है और संगठन के कार्यकर्ता उसकेे एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. अत्तावर मंगलौर में सेना के एक अन्य कार्यकर्ता के साथ मिलकर अपनी एक सिक्योरिटी एजेंसी चलाता है. बाकी लोगों की तरह वह वित्तीय मदद के लिए सेना पर निर्भर नहीं है. जनवरी, 2009 में अत्तावर ने खुलेआम मंगलौर के पब में हुई घटना की जिम्मेदारी ली थी. उस वक्त तहलका के एक रिपोर्टर ने जब एक खबर के सिलसिले में उससे संपर्क किया था तो उसने हमले की योजना बनाने का भी दावा किया था. घटनास्थल पर मीडिया को भी उसने ही फोन करके बुलाया था. कुछ दिनों बाद मुथालिक और अत्तावर समेत 27 लोगों को पब में हुई घटना के संबंध में गिरफ्तार किया गया था. एक हफ्ते बाद जब मजिस्ट्रेट ने उन्हें जमानत दी तो उन सभी का नायकों की तरह स्वागत किया गया था.
अत्तावर के साथ आखिरकार मुलाकात तय हो जाने के बाद सेना के एक कार्यकर्ता जीतेश को तहलका को लेने के लिए भेजा गया. मंगलौर के एक साधारण-से होटल में मुलाकात तय हुई. कुछ मिनट की बातचीत में साफ होने लगा कि वह अपनी गिरफ्तारी से बचने की कोशिश में है और रवि पुजारी गैंग के लिए काम करने के आरोप में पुलिस ने उसके खिलाफ वारंट जारी किया था.  पुजारी के बारे में कहा जाता है कि अपना आपराधिक साम्राज्य खड़ा करने से पहले उसने अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन और दाऊद इब्राहिम के साथ काम किया है. पर्यटन और होटल उद्योग के अलावा कथित तौर पर पुजारी की दिलचस्पी कर्नाटक के रियल एस्टेट उद्योग में भी है. अत्तावर पर पुजारी के इशारे पर कर्नाटक के तटीय इलाके के व्यापारियों और बिल्डरों को धमकाने का आरोप है.
" कासरगोड दंगे के लिए मुझपर आईपीसी की धारा 307 के तहत आरोप लगा था. हाफ मर्डर का. मैंने दो या तीन लोगों को तलवार से हत्या कर दी थी. उन्होंने हमारे दो लोगों पर हमला किया था इसलिए हमने उनके दो लोगों को निपटा दिया "
 जीतेश , श्री राम सेना की उडुपी इकाई का अध्यक्ष 
मुथालिक ने अत्तावर को सब समझा दिया है. इसलिए जब हम उससे मिलते हैं तो उसे ज्यादा कुछ बताने की जरूरत नहीं होती. उसके सुझाव बिल्कुल ठोस और बिंदुवार होते हैं. वह हमें कर्नाटक के बाहर भी प्रदर्शनी आयोजित करने और वहां पर हमला करने का प्रस्ताव देता है. वह कहता है, 'हम ऐसा मुंबई, कोलकाता या उड़ीसा कहीं भी कर सकते हैं.' जब तहलका राय देता है कि कलाकार पर हमले का असर काफी बढ़ जाएगा अगर वह अपने सहयोगी रवि पुजारी से कहकर कोई धमकी जारी करवा दे तो अत्तावर सहमति जताते हुए कहता है कि यह हो सकता है. इससे रवि पुजारी के साथ उसका संबंध साबित होता है. एक मिनट बाद ही वह बताने लगता है कि किस तरह पुलिस को भरोसे में लेना होगा, उन्हें सेट करना होगा. इसके अलावा वह यह भी कहता है कि जो लड़के हमले में हिस्सा लेंगे वे मंगलौर से बाहर के होंगे.
तहलकाः हमने तो पुलिस में जाना नहीं है हमने कोई केस भी नहीं करना... तो अगर पुलिस केस डालेगा तो केस रहेगा नहीं क्योंकि कोई पार्टी नहीं है सामने... हम लोग आइडेंटिफाई नहीं करेंगे...
अत्तावरः वो डिपार्टमेंट सेटिंग करके करेगा ना वो मैं करेगा...
तहलका से मुलाकात के छह दिन बाद अत्तावर को मंगलौर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. उसे पहले मंगलौर जेल ले जाया गया और फिर न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. उसे बेल्लारी जेल में रखा गया था जिसे कर्नाटक की सबसे कड़ी सुरक्षा वाली जेलों में से एक कहा जाता है. बावजूद इसके वह यहां से लगातार तहलका के संपर्क में रहा. तहलका, मंगलौर और बेल्लारी जेलों में भी अत्तावर से मिलने में सफल रहा. मंगलौर जेल में मुलाकात के दौरान जब तहलका ने उससे पूछा कि दो शहरों में दंगे करवाने के लिए क्या 50 लाख रुपए काफी होंगे तो उसका जवाब था, 'मैं फाइनल अमाउंट कैलकुलेट करके आपको बता दूंगा.'  सारी बातचीत 'फाइनल अमाउंट’ के इर्द-गिर्द घूमती रही. पर प्रस्ताव का एक बार भी विरोध नहीं हुआ.
प्रसादः क्या क्या करना है... होटल का अरेंजमेंट करना है?
तहलकाः नहीं वो हम करेगा... आपका सिर्फ टीम लगेगा और बाकी सब...
तहलकाः दंगा करना है... मारकाट करना है? 50 लाख खर्चा कर रहा है दो शहर के लिए.
प्रसादः मंगलौर में...
तहलकाः हां, दो सौ कार्यकर्ता करीब-करीब हों वहां पर... एक्जीबीशन के टाइम पर.
प्रसादः हां...
महज 2,500 रुपए जेल के कुछ वार्डनों और बेल्लारी जेल के सुपिरटेंडेंट एसएन हुल्लर को देकर हमें अत्तावर के साथ एक अलग कमरे में मुलाकात करने की छूट मिल जाती है. अत्तावर कहता है कि उसकी जेब बिल्कुल खाली है और वह हमसे कुछ रुपए मांगता है. हम 3,000 रुपए दे देते हैं. इस मुलाकात के बाद अत्तावर अक्सर हमें एसएमएस कर फोन करने के लिए कहता है. हाई ‌सिक्योरिटी जेल में मोबाइल और उसकी कनेक्टिविटी अत्तावर के लिए बहुत आसान चीजें लगती है. बाद में उसके वकील संजय सोलंकी  ने हमें बताया कि इसके लिए जेल के सुपिरटेंडेंट को मोटी घूस दी जाती है.
मुथालिक से मुलाकात के कुछ दिनों बाद ही तहलका ने सेना के बेंगलुरु शहर प्रमुख वसंतकुमार भवानी से संपर्क किया. भवानी सेना का जनसंपर्क अधिकारी भी है. अंग्रेजी और हिंदी में धाराप्रवाह बोलने वाला यह शख्स मंगलौर के पब में हुई घटना के तुरंत बाद ही हरकत में आ गया था और एक के बाद दूसरे टीवी चैनलों के स्टूडियो जाकर सेना की कारगुजारी और उसकी विचारधारा का बचाव कर रहा था. रियल एस्टेट व्यवसायी भवानी पैसे वाला व्यक्ति है और अत्तावर की तरह ही वह भी पैसे के लिए सेना पर निर्भर नहीं है. बंगलुरू में सेना कैडरों की संख्या के बारे में पूछने पर वह कहता है, 'प्रमोद (मुथालिक) भी मुझसे यह सवाल नहीं पूछते. संख्या बतानी जरूरी नहीं. अगर हमारी असली ताकत के बारे में पुलिस को पता चल गया तो मेरे लड़के मुसीबत में पड़ जाएंगे.' (इस साल फरवरी में जब सेना ने वैलेंटाइन डे के विरोध की घोषणा की तो पुलिस ने एहतियाती उपाय के तहत 400 लोगों को गिरफ्तार किया था).
तहलका से मुलाकात के एक पखवाड़े पूर्व ही भवानी ने मुथालिक के अपमान के विरोध में बंेगलुरू में सेना का एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था (उन्हीं की भाषा में जवाब देने वाली एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में कर्नाटक यूथ कांग्रेस के सदस्यों ने वैलेंटाइन डे पर आयोजित एक टीवी चर्चा के दौरान मुथालिक के मुंह पर कालिख पोत दी थी. इसके विरोध में प्रदर्शन कर रहे भवानी और तमाम दूसरे सेना कार्यकर्ताओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया था).
तहलका से मुलाकात के दौरान बातचीत बेंगलुरू में हमले की संभावनाओं, इसके निष्कर्षों और इसके असर को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के आसपास घूमती रहती है. ये रहे भवानी के सुझावः
" अगर हम एक निश्‍चित रकम पर सहमत हो जाएं तो फिर मैं अपने बॉस, मुथालिक से बात करूंगा. वे ही हमें एक्‍शन के लिए ग्रीन सिग्नल देते हैं. उनके पास स्क्रिप्ट तैयार है. आप अपने ऑफर के बारे में सोचिए " 
वसंत कुमार भवानी, बैंगलुरु में श्री राम सेना  का अध्यक्ष 
भवानीः
 ये रवीन्द्र कलाक्षेत्र मालूम है न आपको.

तहलकाः हां, हां.
भवानीः उसके पीछे एक खुला स्टेज है.
तहलकाः कितना क्राउड आ सकता है उसमें?
भवानीः टू थाउजेंड...
तहलकाः टू थाउजेंड... लेकिन वे कम्यूनल वाइज तो सेंसिटिव है न?
भवानीः कम्यूनल वाइज भी सेंसिटिव है... बोले तो उधर से मार्केट बहुत नजदीक है...
तहलकाः सिटी मार्केट?
भवानीः सिटी मार्केट...
तहलकाः हां फिर तो उधर मुसलिम एरिया है...
भवानीः इसलिए वो जगह बहुत अच्छा है आपके लिए... शिवाजी नगर से वहां बहुत अच्छा स्कोप है क्योंकि वहां भागल में मुसलिम पॉपुलेशन भी बहुत ज्यादा भी है.
तहलकाः हां, सिटी मार्केट में तो है... लेकिन उधर कमर्शियल एरिया ज्यादा पड़ जाता है उधर?
भवानीः आपका जो थिंकिंग है ना उसके लिए सूट हो जाता है उधर...
तहलकाः हमारी जो प्रोफाइल है उसको सूट करता है.
भवानीः उसको सूट करता है... शिवाजी नगर से ज्यादा सूट है... शिवाजी नगर एक रिमोट एरिया हो गया ये फ्लोटिंग ज्यादा है.
तहलकाः शिवाजी नगर किया तो वहां पर ये लगेगा वहां पर एजूकेटिड क्लास नहीं है तो वहां क्यूं कर रहा है... सिटी मार्केट किया तो...
भवानीः आपके आइडिया के लिए और इस कॉन्सेप्ट के लिए ये मैच हो रहा है... क्योंकि इलिटरेट आके आपका गैलरी तो देखने वाला नहीं है... देखेगा तो ये आपका... अपर क्लास... मिडिल क्लास.
तहलकाः एलीट क्लास...
भवानीः अपर क्लास ही ज्यादा देखेगा...तो अपर क्लास... आप शिवाजी नगर में रखेंगे तो कौन आएगा... ये प्रि-प्लांड लगेगा सबको...
तहलकाः हम्म...
भवानीः अगर शिवाजी नगर किया तो... हां ये अगर एक डाइरेक्शन से सोचेंगे तो सही बात ही... लेकिन उसको ज्यादा हवा नहीं मिलेगा...
तहलकाः हां लोगों को कहीं लग सकता है... कहीं अंडर टेबल एलाइंस है...
भवानीः लग सकता है...
घटनास्थल को लेकर सहमति बन जाने के बाद तारीख को लेकर चर्चा होती है. अपने फोन पर कैलेंडर की तारीखें दिखाते हुए भवानी हमसे सुविधाजनक तारीख के बारे में पूछता है. सप्ताह के कामकाजी दिन या फिर हफ्ते के आखिर में? उसकी राय है कि दूसरा विकल्प ठीक रहेगा क्योंकि उस समय ज्यादा लोग कला प्रदर्शनियां देखने जाते हैं. स्थान और तारीख के बाद वह विरोध की योजना पर आ जाता है. जब हम पूछते हैं कि अगर प्रदर्शनी का उद्घाटन मुसलिम समुदाय के किसी नेता से करवाने पर हमले का असर और भी बढ़ जाएगा तो भवानी न सिर्फ रजामंदी जताता है बल्कि कुछ सुझाव भी दे देता है.
तहलकाः इस प्रोग्राम में, वसंत जी, मुझे पब्लिक बीटिंग जरूर चाहिए... क्योंकि आपका जो ट्रेडमार्क है और मैं चाह रहा इसके अंदर किसी मुसलिम लीडर को बुलाना इनेगुरेशन के लिए... तो मुसलिम कम्युनिटी कुछ न कुछ तो रहेगी... प्रोफेसर हुजरा हैं यहां आईआईएम के अंदर...
भवानीः मुमताज अली को ही बुलाइए न...
तहलकाः किसको...
भवानीः मुमताज अली खान...
तहलकाः ये कौन हैं...
भवानीः वक्फ बोर्ड का मिनिस्टर है न... अभी
तहलकाः कर्नाटक से?
भवानीः हां.
तहलकाः आ जाएगा वो तो... कितना एज होगा मुमताज अली का?
भवानीः फिफ्टी के ऊपर हैं...
तहलकाः फिफ्टी प्लस... ये एमएलसी हैं या एमएलए हैं?
भवानीः एमएलसी होके... बैक डोर एंट्री है... मिनिस्टर हैं वो... हज कमिटी और वक्फ बोर्ड...
तहलकाः उसके अलावा एक और था ना जो बाद में रेल मंत्रा भी बना...
भवानीः सीके जाफर...
तहलकाः जाफर शरीफ...
भवानीः वो उमर हो गया उसके तो...
भवानी कुछ और जरूरी तैयारियों का भी सुझाव देता है मसलन घटनास्थल पर एंबुलेंस-
भवानीः जैसे आप हुसेन का ही नाम रख लेंगे तो अच्छा है... उसे एक दम पॉप्युलर...
तहलकाः नहीं अगर हुसेन का रख दिया तो उससे मेरे को ‘माइलेज’ नहीं मिलेगा हुसेन साहब को ‘माइलेज’ मिल जाएगा...
भवानीः उसको माइलेज जाएगा...मैं इसका एश्योरेंस नहीं दे सकता... आपका डेमेज कितना होगा... डेमेज तो होगा... लेकिन कितना होगा ये गारंटी नहीं ले सकता... क्योंकि हमारे लड़के बहुत फेरोशियस लड़के हैं... वो आगे-पीछे नहीं देखते...
तहलकाः एक बार किया तो किया...
भवानीः किया...मैं उनको अवॉइड भी नहीं कर सकता क्योंकि मेरे ऊपर भड़क जाएंगे...जब नेता ही फेरोशस है तो उनके फॉलोअर्स भी फेरोशस होंगे...इतना तो मैं आपको बोलना चाहता हूं...डैमेज तो होगा लेकिन कितना ये बोल नहीं सकता हूं
तहलकाः पब्लिक बीटिंग्स हो सकती हैं
भवानीः हो सकती हैं...उधर आके जो भी आके उनको...क्योंकि ये सब भी कर देते हैं हमारे लड़के
तहलकाः भीड़ वगैरह आई तो फिर कंट्रोल नहीं होता है...
भवानीः कंट्रोल नहीं होता है...
तहलकाः एंबुलेंस तैयार रखना पड़ेगा ?
भवानीः बिलकुल... वो भी हो सकता है... वो फिर मेरे लोग हैं... जब लेते हैं न कुछ... तो... फिर उनको समझाना पड़ता है... बोलना पड़ता है... केस ज्यादा हो जाएगा... पहले से ज्यादा केस हैं... कंट्रोल करो सिर्फ जो ये डिस्पले है उसको थोड़ा ये...
तहलकाः डेमेज करो...
भवानीः इतना तो मैं समझा दूंगा लेकिन... बोल नहीं सकता न... ऐसे सिरफिरे लोग हैं...
तहलकाः मतलब एंबुलेंस पहले से तैयार रखना पड़ेगा... माइंड में रखकर चलें...
दंगों और तोड़फोड़ के लिए सेना की तैयारियों के और भी सबूत हैं. हमले के बाद की स्थितियों पर बातचीत के दौरान जब हम उनके सामने प्रस्ताव रखते हैं कि हम सेना के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं करेंगे तो भवानी तत्काल इस सुझाव को खारिज कर देता है. 'अगर हमलावरों के खिलाफ केस दर्ज नहीं करवाए जाएंगे तो लोगों के मन में शंका होगी कि हमला पूर्व नियोजित था.' वह कहता है कि उन्हें कोर्ट-कचहरी से कोई फर्क नहीं पड़ता और हमें उनसे कैसे निपटना है, इसके निर्देश हमें मिल जाएंगे.
तहलकाः हमारी तरफ से गैलरी वाले प्रोग्राम के अंदर... आर्ट गैलरी में हम लोगों को कोई केस नहीं करना है... जब कोई राइवल पार्टी ही नहीं है...
वसंतः आपको केस करना पड़ेगा...
(इस बातचीत के बाद अत्तावर की चर्चा के दौरान एक नया सुझाव सामने आता है)
तहलकाः तो केस डालें.
वसंतः डालना पड़ेगा... अगर आप लोग गलती करेंगे तो केस करना पड़ेगा ना हमको.
तहलकाः आपको नहीं लगता कि इसमें मुश्किलें आएंगी?
वसंतः दिक्कत होगी तभी तो परपस पूरा होगा... पानी में उतर गया तो...
तहलकाः ठीक है आप जैसा आदेश करते हैं... लेकिन लगातार डेट पर आना कोर्ट में खड़ा होना... ये शायद किसी भी आदमी के लिए थ्री थाउजेंट किमी से आना टेक्नीकली शायद बहुत-बहुत मुश्किल होगा...
वसंतः उसके लिए रास्ता हम दे देगें न... एक बार आपका ये सक्सेस होने के बाद बैठ के मैं समझा दूंगा... क्या करना है कैसा करना है...
तहलकाः कोई भी लोकल वकील सेट कर दिया वो डेट एक्सटेंड... होती रहेगी...
वसंतः मैं बोल दूंगा आपको... समझा दूंगा... समझा दूंगा कैसा करना है क्या करना है...
तहलकाः ठीक है...
वसंतः लेकिन आप मेंटली प्रिपेयर रहना...

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कुछ ही मिनट बाद भवानी तहलका से पैसों की बातचीत करने लगता है. 'मुझे एक आंकड़ा बताओ ताकि मैं सर (मुथालिक) से बात कर सकूं,' भवानी कहता है. हम एक कागज पर 70 लाख लिखकर भवानी की तरफ बढ़ाते हैं. अगली प्रतिक्रिया में वह पूछता है कि अत्तावर (सेना का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष) को कितनी पेशकश की गई थी.
जब उसे बताया जाता है कि अत्तावर को भी इतनी ही पेशकश की गई थी तो भवानी यह कहते हुए प्रस्ताव ठुकरा देता है, 'अतावर इतने पर कभी राजी नहीं होगा.' वह कहता है कि पुलिस को निपटाने के लिए हमें कुछ और पैसों का अलग से इंतजाम करके रखना चाहिए.
तहलकाः उन्होंने मुझे दो लाइन बोला था... संगठन के लिए अलग... कार्यकर्ता के लिए अलग... तो मैंने संगठन के लिए 5 लाख कहा... तो बोले देखेंगे... कार्यकर्ताओं के लेवल पे ये तो जायेगा कि केस वगैरह पड़ गया तो ठीक है... कार्यकर्ताओं के लिए 50 हजार... कुछ उसको मिल जाएगा कुछ उसकेे केस में यूज हो जाएगा... दस लड़का आ गया तो 5 लाख... उन्होंने मुझे बोला यूं... संगठन का आप क्या करते हो वो मुथालिक जी के साथ है... और लड़का... वो मैं आपको खुद दूंगा... पुलिस का जो सेटिंग है... वो भी करके दूंगा... कि वो भी करना पड़ेगा.
भवानीः पुलिस का सेटिंग भी करना पड़ेगा... बिना उसका तो नहीं होगा...
तहलकाः नहीं... होगा... तो वहां पर 3 फेज में जा रहा है..थ्री डाइमेंशनल.. संगठन का अलग... कार्यकर्ताओं का अलग...और पुलिस का अलग...
भवानीः पुलिस का अलग...
इसके बाद इस पर चर्चा होती है कि लेन-देन कैसे होगा. हम पूछते हैं कि क्या दंगों के लिए दी जाने वाली राशि नगद की बजाय चेक से दी जा सकती है. भवानी फौरन मना कर देता है. स्वाभाविक है कि दंगे के कारोबार में लेन-देन कानूनी तरीकों से नहीं हो सकता.
तहलका के प्रस्ताव पर श्री राम सेना के कार्यकर्ताओं का रवैया जितना सुनियोजित था उसे देखते हुए इस बात की संभावना बनती है कि संगठन पूर्व में भी इस तरह की गतिविधि में शामिल रहा है. इसमें कानून और पुलिस से निपटने और हिंसक गतिविधियों के बाद कानूनी खामियों का फायदा उठाकर बच नकलने की सेना की कुशलता भी जाहिर होती है.
उडुपी और मंगलौर में सेना के कार्यकर्ताओं से बातचीत में यह बात और मजबूती से सामने आई. काफी कोशिशों के बाद अत्तावर और जीतेश (सेना की उडुपी इकाई का प्रमुख) हमें उन कार्यकर्ताओं से मिलवाने के लिए तैयार हो गए जिन्हें हमले को अंजाम देना था. कुमार और सुधीर पुजारी नाम के ऐसे दो युवा कार्यकर्ता खुलेआम इस बात को स्वीकार कर रहे थे कि वे मंगलौर के पब सहित सेना के कई हिंसक प्रदर्शनों में शामिल रहे हैं. जीतेश, पुजारी और कुमार, तीनों पब हमले में शामिल होने के बावजूद पुलिस की गिरफ्त से बचने में कामयाब रहे. ये तीनों कई साल तक आरएसएस और बजरंग दल में भी रह चुके हैं.
कुछ मिनट की बातचीत के बाद वे बड़बोलेपन में बताते हैं कि किस तरह से उन्होंने पुलिस को चकमा दिया. कुमार एक और घटना के बारे में बताता है जिसमें आठ मुसलमान घायल हुए थे. वह कहता है, 'हमारे हमले के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था.' जीतेश के पास इस तरह की तमाम कहानियां हैं. एक दिन पूर्व तहलका से मुलाकात में उसने हमें बताया था कि 2007 में उसने अपने दो साथियों के साथ मिलकर एक चर्च पर हमला किया था. उसके मुताबिक तीन या चार पादरियों को अस्पताल ले जाना पड़ा था जबकि जीतेश और उसके साथियों को जेल की हवा खानी पड़ी थी.
फिर जीतेश इससे भी ज्यादा वीभत्स एक दूसरी घटना का जिक्र करता है. वह उस वक्त केरल के कासरगोड़ में रहता था और बजरंग दल का सक्रिय कार्यकर्ता था. वह एक मस्जिद पर हुए हमले में शामिल था. वह बताता है कि किस तरह से उसने एक मौलवी पर तलवार से हमला किया था. मौलवी की मौत हो गई थी और जीतेश पर हत्या का आरोप लगा था. वह कहता है कि चार महीने जेल में रहने के बाद उसे जमानत मिल गई. उसके मुताबिक इस दौरान बजरंग दल ने उसकी काफी मदद की- वकील नियुक्त करने से लेकर जमानत के आवेदन तक. जेल से छूटने के बाद वह उडुपी आ गया. कुछ साल बाद जब मुथालिक ने श्री राम सेना बनाई तो वह उसमें शामिल हो गया.
हमारे साथ थोड़ा और सहज होने के बाद जीतेश ने एक और महत्वपूर्ण जानकारी दी. 2006 में उसने 100 दूसरे कार्यकर्ताओं के साथ एक हथियार प्रशिक्षण कैंप में हिस्सा लिया था जिसे श्री राम सेना ने आयोजित किया था. जिन हथियारों का इस्तेमाल उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान किया था उनमें ज्यादातर गैरलाइसेंसी थे. इससे ज्यादा जानकारी देने के लिए वह तैयार नहीं था. एक दिन बाद अत्तावर से मुलाकात के दौरान वह हमारे साथ था और मंगलौर में प्रस्तावित हमले की  योजना में शामिल होने की तैयारी कर रहा था.
अत्तावर और भवानी से मुलाकात के बाद- जिसमें वे बैंगलुरु, मंगलौर या मैसूर में हमला करने के लिए राजी थे- तहलका एक बार फिर से मुथालिक से मिला. एक चीज जो अभी भी तय करनी रह गई थी वह थी पैसे का आंकड़ा. मंगलौर जेल में अत्तावर से मुलाकात के दौरान रकम 50 से 60 लाख रुपए के बीच थी जबकि भवानी से 70 लाख पर सौदेबाजी हुई. तहलका ने मुथालिक से पूछा कि क्या यह रकम काफी है.
तहलकाः सर, क्या ये ठीक होगा कि मैं फोन पर प्रसाद जी के संपर्क मंे रहूं? क्योंकि फोन पर बात करने से परहेज करता हूं
मुथालिकः हां...हां...
तहलकाः प्रसाद जी तो ठीक है...लेकिन एक बार मैं आपसे कनफर्म करना चाहता था, हो सकता हैै शर्मा जी को यह ठीक न लगे लेकिन मैं पैसे के बारे में साफ बात करना चाहता हूं...क्याेंकि मुझसे तीन जगहों के लिए 60 लाख रुपए की बात कही गई थी
मुथालिकः हां
तहलकाः 60 लाख रुपए...आपकी तरफ से यह है ना?
मुथालिकः इस बारे में आपसे किसने कहा?
तहलकाः वसंत जी ने कहा था...
मुथालिकः हां...हां...
तहलकाः इसलिए मैंने सोचा कि एक बार और कनफर्म कर लूं...
मुथालिकः हां...हां...मैं पैसे के बारे में नहीं बता सकता...यह उनका काम है ये वही कर सकते है.
इस खबर के प्रेस में जाने तक अत्तावर और उसके वकील संजय सोलंकी हमले की रूपरेखा और रकम तय करने के लिए तहलका के संपर्क में थे. सोलंकी ने तहलका को आश्वासन दिया कि सौदा पक्का करने और रकम का आंकड़ा तय करने के लिए अत्तावर के साथ हमारी बातचीत बहुत जल्दी संभव होगी.
मगर हमें इसकी जरूरत नहीं थी.

Monday 5 November 2012

कौन दहशदगर्द ??? PART - 6

कौन  दहशदगर्द है और कौन  बलि का बकरा ???
अजीत साही  की ज़ुबानी I 
(तहलका  पत्रकार )

कौन दहशदगर्द ??? PART - 5

कौन  दहशदगर्द है और कौन  बलि का बकरा ???
अजीत साही  की ज़ुबानी I 
(तहलका  पत्रकार )

कौन दहशदगर्द ??? PART - 4

कौन  दहशदगर्द है और कौन  बलि का बकरा ???
अजीत साही  की ज़ुबानी I 
(तहलका  पत्रकार )

कौन दहशदगर्द ??? PART - 3

कौन  दहशदगर्द है और कौन  बलि का बकरा ???
अजीत साही  की ज़ुबानी I 
(तहलका  पत्रकार )

कौन दहशदगर्द ??? PART - 2

कौन  दहशदगर्द है और कौन  बलि का बकरा ???
अजीत साही  की ज़ुबानी I 
(तहलका  पत्रकार )

कौन दहशदगर्द ??? PART - 1

कौन  दहशदगर्द है और कौन  बलि का बकरा ???
अजीत साही  की ज़ुबानी I 
(तहलका  पत्रकार )

आतंक के मोहरे या बलि के बकरे ?


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अहमदाबाद धमाकों के बाद एक मौलाना की संदिग्ध गिरफ्तारी तो केवल बानगी भर है. तीन महीने की गहन पड़ताल के बाद ऐसे ही तमाम मामलों पर रोशनी डालती अजित साही की रिपोर्ट.



हर शुक्रवार की तरह 25 जुलाई को भी मौलाना अब्दुल हलीम ने अपना गला साफ करते हुए मस्जिद में जमा लोगों को संबोधित करना शुरू किया. करीब दो बजे का वक्त था और इस मृदुभाषी आलिम (इस्लामिक विद्वान) ने अभी-अभी अहमदाबाद की एक मस्जिद में सैकड़ों लोगों को जुमे की नमाज पढ़वाई थी. अब वो खुतबा (धर्मोपदेश) पढ़ रहे थे जो पड़ोसियों के प्रति सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारी के बारे में था. गंभीर स्वर में हलीम कहते हैं, “अगर तुम्हारा पड़ोसी भूखा हो तो तुम भी अपना पेट नहीं भर सकते. तुम अपने पड़ोसी के साथ हिंदू-मुसलमान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते.”

तीस घंटे बाद, शनिवार को 53 लोगों की मौत का कारण बने अहमदाबाद बम धमाकों के कुछ मिनटों के भीतर ही पुलिस मस्जिद से सटे हलीम के घर में घुस गई और भौचक्के पड़ोसियों के बीच उन्हें घसीटते हुए बाहर ले आई. पुलिस का दावा था कि हलीम धमाकों की एक अहम कड़ी हैं और उनसे पूछताछ के जरिये पता चल सकता है कि आतंक की इस कार्रवाई को किस तरह अंजाम दिया गया. पुलिस के इस दावे के आधार पर एक स्थानीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें दो हफ्ते के लिए अपराध शाखा की हिरासत में भेज दिया.

त्रासदी और आतंक के समय हर कोई जवाब चाहता है. हर कोई चाहता है कि गुनाहगार पकड़े जाएं और उन्हें सजा मिले. ऐसे में चुनौती ये होती है कि दबाव में आकर बलि के बकरे न ढूंढे जाएं. मगर दुर्भाग्य से सरकार इस चुनौती पर हर बार असफल साबित होती रही है. उदाहरण के लिए जब भी धमाके होते हैं सरकारी प्रतिक्रिया में सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का नाम अक्सर सुनने को मिलता है. ज्यादातर लोगों के लिए सिमी एक डरावना संगठन है जो घातक आतंकी कार्रवाइयों के जरिये देश को बर्बाद करना चाहता है.
मगर सवाल उठता है कि ये आरोप कितने सही हैं?

एक न्यायसंगत और सुरक्षित समाज बनाने के संघर्ष में ये अहम है कि असल दोषियों और सही जवाबों तक पहुंचा जाए और ईमानदारी से कानून का पालन किया जाए. इसके लिए ये भी जरूरी है कि झूठे पूर्वाग्रहों और बनी-बनाई धारणाओं के परे जाकर पड़ताल की जाए. इसीलिए तहलका ने पिछले तीन महीने के दौरान भारत के 12 शहरों में अपनी तहकीकात की. तहकीकात की इस श्रंखला की ये पहली कड़ी है.
हमने पाया कि आतंकवाद से संबंधित मामलों में, और खासकर जो प्रतिबंधित सिमी से संबंधित हैं, ज्यादातर बेबुनियाद या फिर फर्जी सबूतों पर आधारित हैं. हमने पाया कि ये मामले कानून और सामान्य बुद्धि दोनों का मजाक उड़ाते हैं.

इस तहकीकात में हमने पाया कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के पूर्वाग्रह, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और सनसनी का भूखा व आतंकवाद के मामले पर पुलिस की हर कहानी को आंख मूंद कर आगे बढ़ा देने वाला मीडिया, ये सारे मिलकर एक ऐसा तंत्र बनाते हैं जो सैकड़ों निर्दोष लोगों पर आतंकी होने का लेबल चस्पा कर देता है. इनमें से लगभग सारे मुसलमान हैं और सारे ही गरीब भी.
 हलीम का परिवार
हलीम का परिवार
अहमदाबाद के सिविल अस्पताल, जहां हुए दो धमाकों ने सबसे ज्यादा जानें लीं, का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना था, “हम इस चुनौती का मुकाबला करेंगे और मुझे पूरा भरोसा है कि हम इन ताकतों को हराने में कामयाब होंगे.” उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों का आह्वान किया कि वे सामाजिक ताने-बाने और सांप्रदायिक सद्भावना को तहस-नहस करने के लिए की गई इस कार्रवाई के खिलाफ मिलकर काम करें. मगर निर्दोषों के खिलाफ झूठे मामलों के चौंकाने वाले रिकॉर्ड को देखते हुए लगता है कि अक्षम पुलिस और खुफिया एजेंसियां कर बिल्कुल इसका उल्टा रही हैं. मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी इसका सुलगता हुआ उदाहरण है.

पिछले रविवार से ही मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनमें पुलिस के हवाले से हलीम को सिमी का सदस्य बताया जा रहा है जिसके संबंध पाकिस्तान और बांग्लादेश स्थित आतंकवादियों से हैं.  गुजरात सरकार के वकील ने मजिस्ट्रेट को बताया कि आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने के लिए हलीम मुसलमान नौजवानों को अहमदाबाद से उत्तर प्रदेश भेजा करते थे और इस कवायद का मकसद 2002 के नरसंहार का बदला लेना था. वकील के मुताबिक इन तथाकथित आतंकवादियों ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई दूसरे नेताओं को मारने की योजना बनाई थी. पुलिस का कहना था कि इस मामले में आरोपी नामित होने के बाद हलीम 2002 से ही फरार चल रहे थे.

इस मौलाना की गिरफ्तारी के बाद तहलका ने अहमदाबाद में जो तहकीकात की उसमें कई अकाट्य साक्ष्य निकलकर सामने आए हैं. ये बताते हैं कि फरार होने के बजाय हलीम कई सालों से अपने घर में ही रह रहे थे. उस घर में जो स्थानीय पुलिस थाने से एक किलोमीटर दूर भी नहीं था. वे एक सार्वजनिक जीवन जी रहे थे. मुसलमानों को आतंकवाद का प्रशिक्षण देने के लिए भेजने का जो संदिग्ध आरोप उन पर लगाया गया है उसका आधार उनके द्वारा लिखी गई एक चिट्ठी है. एक ऐसी चिट्ठी जिसकी विषयवस्तु का दूर-दूर तक आतंकवाद से कोई लेना-देना नजर नहीं आता.

दिलचस्प ये भी है कि शनिवार को हुए बम धमाकों से पहले अहमदाबाद पुलिस ने कभी भी हलीम को सिमी का सदस्य नहीं कहा था. ये बात जरूर है कि वह कई सालों से 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के पीड़ितों की मदद में उनकी भूमिका के लिए उन्हें परेशान करती रही है. हलीम के परिजन और अनुयायी ये बात बताते हैं. इस साल 27 मई को पुलिस थाने से एक इंस्पेक्टर ने हलीम को गुजराती में एक पेज का हस्तलिखित नोटिस भेजा. इसके शब्द थे, “मरकज-अहले-हदीस (इस्लामी पंथ जिसे हलीम और उनके अनुयायी मानते हैं) ट्रस्ट का एक दफ्तर आलीशान शॉपिंग सेंटर की दुकान नंबर चार में खोला गया है. आप इसके अध्यक्ष हैं...इसमें कई सदस्यों की नियुक्ति की गई है. आपको निर्देश दिया जाता है कि उनके नाम, पते और फोन नंबरों की सूची जमा करें.”

कानूनी नियमों के हिसाब से बनाए गए एक ट्रस्ट, जिसके खिलाफ कोई आपराधिक आरोप न हों, से की गई ऐसी मांग अवैध तो है ही, साथ ही इस चिट्ठी से ये भी साबित होता है कि पुलिस को दो महीने पहले तक भी सलीम के ठिकाने का पता था और वह उनसे संपर्क में थी. नोटिस में हलीम के घर—2, देवी पार्क सोसायटी का पता भी दर्ज है. तो फिर उनके फरार होने का सवाल कहां से आया. हलीम के परिवार के पास इस बात का सबूत है कि पुलिस को अगले ही दिन हलीम का जवाब मिल गया था.
एक महीने बाद 29 जून को हलीम ने गुजरात के पुलिस महानिदेशक और अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को एक टेलीग्राम भेजा. उनका कहना था कि उसी दिन पुलिस जबर्दस्ती उनके घर में घुस गई थी और उनकी गैरमौजूदगी में उनकी पत्नी और बच्चों को तंग किया गया. हिंदी में लिखे गए इस टेलीग्राम के शब्द थे,“हम शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं और किसी अवैध गतिविधि में शामिल नहीं रहे हैं. पुलिस गैरकानूनी तरीके से बेवजह मुझे और मेरे बीवी-बच्चों को तंग कर रही है. ये हमारे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है.”
जैसा कि संभावित था, उन्हें इसका कोई जवाब नहीं मिला. अप्रैल में जब सोशल यूनिटी एंड पीस फोरम नाम के एक संगठन, जिसके सदस्य हिंदू और मुसलमान दोनों हैं, ने एक बैठक का आयोजन किया तो लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत के लिए संगठन ने पुलिस को चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी में भी साफ जिक्र किया गया था कि बैठक में हलीम मुख्य वक्ता होंगे. ये साबित करने के लिए कि हलीम इस दौरान एक सामान्य जीवन जीते रहे हैं, उनका परिवार उनका वो ड्राइविंग लाइसेंस भी दिखाता है जिसका अहमदाबाद ट्रांसपोर्ट ऑफिस द्वारा 28 दिसंबर, 2006 को नवीनीकरण किया गया था. तीन साल पहले पांच जुलाई 2005 को दिव्य भास्कर नाम के एक गुजराती अखबार ने उत्तर प्रदेश के एक गांव की महिला इमराना के साथ उसके ससुर द्वारा किए गए बलात्कार के बारे में हलीम का बयान उनकी फोटो के साथ छापा था.
हलीम की रिहाई के लिए गुजरात के राज्यपाल से अपील करने वाले उनके मित्र हनीफ शेख कहते हैं, “ये आश्चर्य की बात है कि हमें मौलाना हलीम की बेगुनाही साबित करनी है.”  नाजिर, जिनके मकान में हलीम अपने परिवार के साथ किराये पर रहा करते थे, कहते हैं, “मैं मौलाना को सबसे करीब से जानता हूं. वे धार्मिक व्यक्ति हैं और उनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहा है.”  हलीम की पत्नी भी कहती हैं कि उनके पति आतंकवादी नहीं हैं और उन्हें फंसाया जा रहा है.

हलीम को जानने वालों में उनकी गिरफ्तारी को लेकर हैरत और क्षोभ है. 27 वर्षीय अहसान-उल-हक कहते हैं, “मौलाना हलीम ने सैकड़ों लोगों को सब्र करना और हौसला रखना सिखाया है.” ये साबित करने के लिए कि हलीम फरार नहीं थे, हक अपना निकाहनामा दिखाते हैं जो हलीम की मौजूदगी में बना था और जिस पर उनके हस्ताक्षर भी हैं.


 
यासिर की पत्नी सोफिया
उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले 43 वर्षीय अब्दुल हलीम 1988 से अहमदाबाद में रह रहे हैं. वे अहले हदीस नामक एक इस्लामी संप्रदाय के प्रचारक हैं जो इस उपमहाद्वीप में 180 साल पहले अस्तित्व में आया था. ये संप्रदाय कुरान के अलावा पैगंबर मोहम्मद द्वारा दी गई शिक्षाओं यानी हदीस को भी मुसलमानों के लिए मार्गदर्शक मानता है. सुन्नी कट्टरपंथियों से इसका टकराव होता रहा है.  मीडिया में लंबे समय से खबरें फैलाई जाती रही हैं कि अहले-हदीस एक आंतकी संगठन है जिसके लश्कर-ए-तैयबा से संबंध हैं. पुलिस दावा करती है कि इसके सदस्य 2006 में मुंबई में हुए ट्रेन धमाकों सहित कई आतंकी घटनाओं में आरोपी हैं. करीब तीन करोड़ अनुयायियों वाला ये संप्रदाय इन आरोपों से इनकार करता है और बताता है कि दो साल पहले जब इसने दिल्ली में अपनी राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी तो गृह मंत्री शिवराज पाटिल इसमें बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे.

14 साल तक अहमदाबाद में अहले हदीस के 5000 अनुयायियों का नेतृत्व करने के बाद हलीम तीन साल पहले इस्तीफा देकर एक छोटी सी मस्जिद के इमाम हो गए. अपनी पत्नी और सात बच्चों के परिवार को पालने के लिए उन्हें नियमित आय की दरकार थी और इसलिए उन्होंने कबाड़ का व्यवसाय शुरू किया.

हलीम की मुश्किलें 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद तब शुरू हुईं जब वे हजारों मुस्लिम शरणार्थियों के लिए चलाए जा रहे राहत कार्यों में  शामिल हुए. उस दौरान शाहिद बख्शी नाम का एक शख्स दो दूसरे मुस्लिम व्यक्तियों के साथ उनसे मिलने आया था. कुवैत में रह रहा शाहिद अहमदाबाद का ही निवासी था. उसके साथ आए दोनों व्यक्ति उत्तर प्रदेश के थे जिनमें से एक फरहान अली अहमद कुवैत में रह रहा था. दूसरा व्यक्ति हाफिज़ मुहम्मद ताहिर मुरादाबाद का एक छोटा सा व्यापारी था. ये तीनों लोग 2002 की हिंसा में अनाथ हुए बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा और देखभाल का इंतजाम कर उनकी मदद करना चाहते थे. इसलिए हलीम उन्हें चार शरणार्थी कैंपों में ले गए. एक हफ्ते बाद एक कैंप से जवाब आया कि उसने ऐसे 34 बच्चों को खोज निकाला है जिन्हें इस तरह की देखभाल की जरूरत है. हलीम ने फरहान अली अहमद को फोन किया जो उस समय मुरादाबाद में ही था और उसे इस संबंध में एक चिट्ठी भी लिखी. मगर लंबे समय तक कोई जवाब नहीं आया और योजना शुरू ही नहीं हो पाई. महत्वपूर्ण ये भी है कि किसी भी बच्चे को कभी भी मुरादाबाद नहीं भेजा गया.

तीन महीने बाद अगस्त 2002 में दिल्ली पुलिस ने शाहिद और उसके दूसरे साथी को कथित तौर पर साढ़े चार किलो आरडीएक्स के साथ गिरफ्तार किया. मुरादाबाद के व्यापारी को भी वहीं से गिरफ्तार किया गया और तीनों पर आतंकी कार्रवाई की साजिश के लिए पोटा के तहत आरोप लगाए गए. दिल्ली पुलिस को इनसे हलीम की चिट्ठी मिली. चूंकि बख्शी और हलीम दोनों ही अहमदाबाद से थे इसलिए वहां की पुलिस को इस बारे में सूचित किया गया. तत्काल ही अहमदाबाद पुलिस के अधिकारी डी जी वंजारा(जो अब सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में जेल में हैं) ने हलीम को बुलाया और उन्हें अवैध रूप से हिरासत में ले लिया. घबराये परिवार ने उनकी रिहाई के लिए गुजरात हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. उनके परिवार के वकील हाशिम कुरैशी याद करते हैं, “जज ने पुलिस को आदेश दिया कि वह दो घंटे के भीतर हलीम को कोर्ट में लाए.” पुलिस ने फौरन हलीम को रिहा कर दिया. वे सीधा कोर्ट गए और अवैध हिरासत पर उनका बयान दर्ज किया गया जो अब आधिकारिक दस्तावेजों का हिस्सा है.

जहां दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश के दोनों व्यक्तियों और शाहिद बख्शी के खिलाफ आरडीएक्स रखने का मामला दर्ज किया वहीं अहमदाबाद पुलिस ने  इन तीनों के खिलाफ मुस्लिम युवाओं को मुरादाबाद में आतंकी प्रशिक्षण देने के लिए फुसलाने का मामला बनाया. अहमदाबाद के धमाकों के बाद पुलिस और मीडिया इसी मामले का हवाला देकर हलीम पर मुस्लिम नौजवानों को आतंकी प्रशिक्षण देने का आरोप लगा रहे हैं. हलीम द्वारा तीस नौजवानों को प्रशिक्षण के लिए मुरादाबाद भेजने की बात कहते वक्त गुजरात सरकार के वकील सफेद झूठ बोल रहे थे. जबकि मामले में दाखिल आरोपपत्र भी किसी को अहमदाबाद से मुरादाबाद भेजने की बात नहीं करता.

दिल्ली में दर्ज मामले में जहां हलीम को गवाह नामित किया गया तो वहीं अहमदाबाद के आतंकी प्रशिक्षण वाले मामले में उन्हें आरोपी बनाकर कहा गया कि वो भगोड़े हैं. कानून कहता है कि किसी को भगोड़ा साबित करने की एक निश्चित प्रक्रिया होती है. इसमें गवाहों के सामने घर और दफ्तर की तलाशी ली जाती है और पड़ोसियों के बयान दर्ज किए जाते हैं जो बताते हैं कि संबंधित व्यक्ति काफी समय से देखा नहीं गया है. मगर अहमदाबाद पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया. हलीम के खिलाफ पूरा मामला उस पत्र पर आधारित है जो उन्होंने सात अगस्त 2002 को फरहान को लिखा था. इस पत्र में गैरकानूनी जैसा कुछ भी नहीं है. ये एक जगह कहता है, “आप यहां एक अहम मकसद से आए थे.”  कल्पना की उड़ान भर पुलिस ने दावा कर डाला कि ये अहम मकसद आतंकी प्रशिक्षण देना था. हलीम ने ये भी लिखा था कि कुल बच्चों में से छह अनाथ हैं और बाकी गरीब हैं. पत्र ये कहते हुए समाप्त किया गया था, “मुझे यकीन है कि अल्लाह के फज़ल से आप यकीनन इस्लाम को फैलाने के इस शैक्षिक और रचनात्मक अभियान में मेरी मदद करेंगे.”  आरडीएक्स मामले में दिल्ली की एक अदालत के सामने हलीम ने कहा था कि उनसे कहा गया था कि मुरादाबाद में बच्चों को अच्छी तालीम और जिंदगी दी जाएगी. उन्हें ये पता नहीं था कि बख्शी और दूसरे लोग बच्चों को आतंकी प्रशिक्षण देने की सोच रहे हैं.

पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने “आरडीएक्स मामले” में बख्शी और फ़रहान को दोषी करार दिया और उन्हें सात-सात साल कैद की सज़ा सुनाई. बावजूद इसके कि तथाकथित आरडीएक्स की बरामदगी के चश्मदीद सिर्फ पुलिस वाले ही थे, कोर्ट ने पुलिस के ही आरोपों को सही माना. फरहान का दावा था कि उसे हवाई अड्डे से तब गिरफ्तार किया गया था जब वो कुवैत की उड़ान पकड़ने जा रहा था और उसके पास इसके सबूत के तौर पर टिकट भी थे. लेकिन अदालत ने इसकी अनदेखी की.


 
यासिर 
बख्शी और फरहान ने इस सज़ा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की जिसने निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने के बावजूद उन्हें ज़मानत दे दी. वहीं गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें “आतंकी प्रशिक्षण” मामले में  ज़मानत देने से इनकार कर दिया जबकि उन पर आरोप सिद्ध भी नहीं हुआ था. गुजरात क्राइम ब्रांच भी ये मानती है कि इस मामले में उनका अपराध सिर्फ षडयंत्र रचने तक ही सीमित हो सकता है.

सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुरादाबाद के ताहिर को आरडीएक्स मामले में बरी कर दिया गया था. वो एक बार फिर तब भाग्यशाली रहा जब गुजरात हाई कोर्ट ने जून 2004 में उसे आतंकवाद प्रशिक्षण मामले में ज़मानत दे दी. अदालत का कहना था, “वर्तमान आरोपी के खिलाफ कुल मिलाकर सिर्फ इतना ही प्रमाण है कि वो अहमदाबाद आया था और कैंप का चक्कर भी लगाया था, ताकि उन बच्चों की पहचान कर सके और उनकी देख रेख अच्छे तरीके से हो सके और इसे किसी तरह का अपराध नहीं माना जा सकता.”

बख्शी और फरहान पर भी बिल्कुल यही आरोप थे, लिहाजा ये तर्क उन पर भी लागू होना चाहिए. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट के एक अन्य जज ने उन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया और दोनों को जेल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस बीच ताहिर अहमदाबाद आकर रहने लगा क्योंकि गुजरात हाई कोर्ट ने उसकी ज़मानत के फैसले में ये आदेश दिया था कि उसे हर रविवार को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ऑफिस में हाजिरी देनी होगी. 26 जुलाई को हुए धमाकों के बाद अगली सुबह रविवार के दिन डरा सहमा ताहिर अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के ऑफिस पहुंचा. ताहिर ने तहलका को बताया, “उन्होंने चार घंटे तक मुझसे धमाके के संबंध में सवाल जवाब किए. उस वक्त मुझे बहुत खुशी हुई जब उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा.” आतंकी प्रशिक्षण मामले की सुनवाई लगभग खत्म हो चुकी है. अब जबकि हलीम भगोड़े नहीं रहे तो ये बात देखने वाली होगी कि उसके खिलाफ इस मामले में अलग से सुनवाई होती है या नहीं. इस बीच हलीम के परिवार को खाने और अगले महीने घर के 2500 रूपए किराए की चिंता सता रही है। हलीम की पत्नी बताती है है कि उनके पास कोई बचत नहीं है. हलीम की कबाड़ की दुकान उनका नौकर चला रहा है.
दुखद बात ये है कि मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी कोई अकेली नहीं है. 15 जुलाई की रात हैदराबाद में अपने पिता के वर्कशॉप से काम करके वापस लौट रहे मोहम्मद मुकीमुद्दीन यासिर को सिपाहियों के एक दल ने गिरफ्तार कर लिया. दस दिन बाद 25 जुलाई को जब बंगलोर में सीरियल धमाके हुए, जिनमें दो लोगों की मौत हो गई, तो हैदराबाद के पुलिस आयुक्त प्रसन्ना राव ने हिंदुस्तान टाइम्स को एक नयी बात बताई. उनके मुताबिक पूछताछ के दौरान यासिर ने ये बात स्वीकारी थी कि गिरफ्तारी से पहले वो आतंकियों को कर्नाटक ले गया था और वहां पर उसने उनके लिए सुरक्षित ठिकाने की व्यवस्था की थी. मगर जेल में उससे मिलकर लौटीं उसकी मां यासिर के हवाले से तहलका को बताती हैं कि पुलिस झूठ बोल रही है, और पुलिस आयुक्त जिसे पूछताछ कह रहे हैं असल में उसके दौरान उनके बेटे को कठोर यातनाएं दी गईं. वो कहती हैं, “उसे उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था.”

हालांकि पुलिस के सामने दिये गए बयान की कोई अहमियत नहीं फिर भी अगर इसे सच मान भी लें तो ये हैदराबाद पुलिस के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा होगा. आखिर यासिर सिमी का पूर्व सदस्य था, उसके पिता और एक भाई आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं. उसके पिता की जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट तक से खारिज हो चुकी है. ये जानते हुए कि उसके भाई और बाप खतरनाक आतंकवादी हैं हैदराबाद पुलिस को हर वक्त उसकी निगरानी करनी चाहिए थी, और जैसे ही वो आतंकियों के संपर्क में आया उसे गिरफ्तार करना चाहिए था.
पुलिस ने न तो यासिर के बयान पर कोई ज़रूरी कार्रवाई की जिससे बैंगलुरु का हमला रोका जा सकता और न ही वो यासिर द्वारा कर्नाटक में आतंकियों को उपलब्ध करवाया गया सुरक्षित ठिकाना ही ढूंढ़ सकी. इसकी वजह शायद ये रही कि उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं था. तहलका संवाददाता ने हैदराबाद में यासिर की गिरफ्तारी के एक महीने पहले 12 जून को उससे मुलाकात की थी. उस वक्त यासिर अपने पिता द्वारा स्थापित वर्कशॉप में काम कर रहा था. उसका कहना था, “मेरे पिता और भाई को फंसाया गया है.”

ऐसा लगता है कि अंतर्मुखी यासिर फर्जी मामलों का शिकार हुआ है. 27 सितंबर 2001 को सिमी पर प्रतिबंध लगाए जाने के वक्त वो सिमी का सदस्य था. (तमाम सरकारी प्रचार के बावजूद देश की किसी अदालत ने अभी तक एक संगठन के रूप में सिमी को आंतकवाद से जुड़ा घोषित नहीं किया है) यासिर ने देश भर में फैले उन कई लोगों की बातों को ही दोहराया जिनसे तहलका ने मुलाकात की थी. उसने कहा कि सिमी एक माध्यम था जो धर्म में गहरी आस्था और आत्मशुद्धि का प्रशिक्षण देता था और इसका आतंकवाद या फिर भारत विरोधी साजिशों से कोई नाता नहीं था। “सिमी चेचन्या से लेकर कश्मीर तक मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की बात करता था”, यासिर ने बताया. “उसने कभी भी बाबरी मस्जिद का मुद्दा नही छेड़ा और इसी चीज़ ने हमें सिमी की तरफ आकर्षित किया”, वो आगे कहता है.
 
मौलाना नसीरुद्दीन
सिमी पर जिस दिन प्रतिबंध लगाया गया था उसी रात हैदराबाद में यासिर और सिमी के कई प्रतिनिधियों को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन उन्हें ज़मानत मिल गई. एक दिन बाद ही पुलिस ने तीन लोगों को सरकार के खिलाफ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दो लोगों को फरार घोषित कर दिया गया जिनमें यासिर भी शामिल था. उन्होंने कोर्ट में आत्मसमर्पण किया और उन्हें जेल भेज दिया गया. यहां यासिर को 29 दिनों बाद ज़मानत मिली. इस मामले में सात साल बीत चुके हैं, लेकिन सुनवाई शुरू होनी अभी बाकी है.
यासिर के पिता की किस्मत और भी खराब है. इस तेज़ तर्रार मौलाना की पहचान सरकार के खिलाफ ज़हर उगलने वाले के रूप में थी, 

विशेषकर बाबरी मस्जिद और 2002 के गुजरात दंगो के मुद्दे पर इनके भाषण काफी तीखे होते थे. तमाम फर्जी मामलों में फंसाए गए मौलाना को हैदराबाद पुलिस ने नियमित रूप से हाजिरी देने का आदेश दिया था.
इसी तरह अक्टूबर 2004 को जब मौलाना पुलिस में हाजिरी देने पहुंचे तो अहमदाबाद से आयी एक पुलिस टीम ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके ऊपर गुजरात में आतंकवादी साजिश रचने और साथ ही 2003 में गुजरात के गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या की साजिश रचने का आरोप था।

मौलाना के साथ पुलिस स्टेशन गए स्थानीय मुसलमानों ने वहीं पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस पर गुजरात पुलिस के अधिकारी नरेंद्र अमीन ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाल कर फायर कर दिया जिसमें एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। इसके बाद तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। नसीरुद्दीन के समर्थकों ने अमीन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर मृत शरीर को वहां से ले जाने से इनकार कर दिया। अंतत: हैदराबाद पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज कीं। एक तो मौलाना की गिरफ्तारी का विरोध करने वालों के खिलाफ और दूसरी अमीन के खिलाफ।

अमीन के खिलाफ दर्ज हुआ मामला चार साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। हैदराबाद पुलिस को उनकी रिवॉल्वर जब्त कर मृतक के शरीर से बरामद हुई गोली के साथ फॉरेंसिक जांच के लिए भेजना चाहिए था। उन्हें अमीन को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश करना चाहिए था। अगर गोली का मिलान उनके रिवॉल्वर से हो जाता तो इतने गवाहों की गवाही के बाद ये मामला उसी समय खत्म हो जाता। पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।

अमीन, मौलाना नसीरुद्दीन को साथ लेकर अहमदाबाद चले गए और उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर फाइलों में दब कर रह गई। अमीन ही वो पुलिस अधिकारी हैं जिनके ऊपर कौसर बी की हत्या का आरोप है। कौसर बी गुजरात के व्यापारी सोहराबुद्दीन की बीवी थी जिसकी हत्या के आरोप में गुजरात पुलिस के अधिकारी वंजारा जेल में है। अमीन भी अब जेल में हैं।

इस बीच अमीन के खिलाफ हैदराबाद शूटआउट मामले में शिकायत दर्ज करने वाले नासिर के साथ हादसा हो गया। नासिर मौलाना नसीरुद्दीन का सबसे छोटा बेटा और यासिर का छोटा भाई है। इसी साल 11 जनवरी को कर्नाटक पुलिस ने नासिर को उसके एक साथी के साथ गिरफ्तार कर लिया। जिस मोटरसाइकिल पर वो सवार थे वो चोरी की थी। पुलिस के मुताबिक उनके पास से एक चाकू भी बरामद हुआ था। पुलिस ने उनके ऊपर ‘देशद्रोह’ का मामला दर्ज किया।

आश्चर्यजनक रूप से पुलिस ने अगले 18 दिनों में दोनों के 7 कबूलनामें अदालत में पेश किए। इनमें से एक में भी इस बात का जिक्र नहीं था कि वो सिमी के सदस्य थे। इसके बाद पुलिस ने आठवां कबूलनामा कोर्ट में पेश किया जिसमें कथित रूप से उन्होंने सिमी का सदस्य होना और आतंकवाद संबंधित आरोपों को स्वीकार किया था। 90 दिनों तक जब पुलिस उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने में नाकाम रही तो नासिर का वकील मजिस्ट्रेट के घर पहुंच गया, इसके बाद क़ानून के मुताबिक उसे ज़मानत देने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लेकिन तब तक पुलिस ने नासिर के खिलाफ षडयंत्र का एक और मामला दर्ज कर दिया और इस तरह से उसकी हिरासत जारी रही। इस दौरान यातनाएं देने का आरोप लगाते हुए उसने पुलिस द्वारा पेश किए गए कबूलनामों से इनकार कर दिया।

दोनों को पुलिस हिरासत में भेजने वाले मजिस्ट्रेट बी जिनाराल्कर ने तहलका को एक साक्षात्कार में बताया:
“जब मैं उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए जरूरी कागजात पर दस्तखत कर रहा था तभी अब्दुल्ला (दूसरा आरोपी) मेरे पास आकर मुझसे बात करने की विनती करने लगा।” उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे खाना और पानी नहीं देती है और बार-बार पीटती है। वो नासिर के शरीर पर चोटों के निशान दिखाने के लिए बढ़ा। दोनों लगातार मानवाधिकारों की बात कर रहे थे और चिकित्सकीय सुविधा मांग रहे थे”।
“मुझे तीन बातों से बड़ी हैरानी हुई—वो अपने मूल अधिकारों की बात बहुत ज़ोर देकर कर रहे थे। वो अंग्रेज़ी बोल रहे थे और इस बात को मान रहे थे कि उन्होंने बाइक चुराई थी। मेरा अनुभव बताता है कि ज्यादातर चोर ऐसा नहीं करते हैं।”
जब एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने मजिस्ट्रेट को फोन करके उन्हें न्यायिक हिरासत में न भेजने की चेतावनी दी तब उन्होंने सबसे पहले सबूत अपने घर पर पेश करने को कहा। “उन्होंने मेरे सामने जो सबूत पेश किए उनमें फर्जी पहचान पत्र, एक डिजाइनर चाकू, दक्षिण भारत का नक्शा जिसमें उडुपी और गोवा को चिन्हित किया गया था, कुछ अमेरिकी डॉलर, कागज के दो टुकड़े थे जिनमें एक पर www.com और दूसरे पर ‘जंगल किंग बिहाइंड बैक मी’ लिखा हुआ था।

जब मैंने इतने सारे सामानों को एक साथ देखा तो मुझे लगा कि ये सिर्फ बाइक चोर नहीं हो सकते। बाइक चोर को फर्जी पहचान पत्र और दक्षिण भारत के नक्शे की क्या जरूरत? उनके पास मौजूद अमेरिकी डॉलर से संकेत मिल रहा था कि उनके अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं। कागज पर www.com से मुझे लगा कि वे तकनीकी रूप से दक्ष भी हैं। दूसरे कागज पर लिखा संदेश मुझे कोई कूट संकेत लगा जिसका अर्थ समझने में मैं नाकाम रहा। इसके अलावा जब मैंने दक्षिण भारत के नक्शे का मुआयना शुरू किया तो उडुपी को लाल रंग से चिन्हित किया गया था। शायद उनकी योजना एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान उडुपी में हमले की रही हो।”
“मुझे लगा कि इतने सारे प्रमाण नासिर और अब्दुल्ला को पुलिस हिरासत जांच को आगे बढ़ाने के वास्ते हिरासत में भेजने के लिए पर्याप्त हैं।”
तो क्या मौलाना हलीम, मुकीमुद्दीन यासिर, मौलाना नसीरुद्दीन, और रियासुद्दीन नासिर के लिए कोई उम्मीद है?  यासिर और नासिर की मां को कोई उम्मीद नहीं है। वे गुस्से में कहती हैं, “क्यों नहीं पुलिस हम सबको एक साथ जेल में डाल देती है।” फिर गुस्से से ही कंपकपाती आवाज़ कहती है, “और फिर वो हम सबको गोली मार कर मौत के घाट उतार दें।”